साहित्य-संसार

Friday, March 31, 2006

रहा जा सकता है वहाँ भी

रहा जा सकता है वहाँ भी
मुकम्मल तौर से
बारी-बारी से खिड़की के पास बैठकर
कुछ भीतर-कुछ बाहर
निहार लिया जाए बारी-बारी से


बारी-बारी से
एक ही चटाई पर लेटकर
सपना देख लिया जाए
बारी-बारी से एक ही थाली में परोसी गई
मकोई की रोटी अरहर की दाल
भात-कढ़ी में ताजी धनिया डाल
खा लिया जाए


बारी-बारी से
कुलदेवता वाली ‘मानता पथर’ के आगे
हल्दिया चाउल छिड़ककर
समानधर्मी मन्नतें माँग ली जाएँ

बारी-बारी से
बूढ़े पहाड़ जैसे सयाने पिता
हरी-भरी नदी जैसी अनुभवी माँ
की हिदायतें मान ली जाय
तो रहा जा सकता है
अपने पुस्तैनी गाँव से बहुत दूर
किसी भी अचीन्ही, अदयालु, असंवेदित महानगरी में
बुरे समय वाले निर्वासित जीवन के
कुछ दिनों में
दो या फिर तीन कमरे वाले घर में

यूँ भी
हर इंच जगह में दुनिया हो सकती है
समूची दुनिया में रह नहीं सकता कोई भी
यूँ भी
किसी को ताउम्र एक इंच पर नहीं रहना होता

रहा जा सकता है
वहाँ भी गाँव लौटने के पहले तक
मुकम्मल तौर से


******

एक अदद घर

जब
माँ –
नींव की तरह बिछ जाती है
पिता –
तने रहते हैं हरदम छत बनकर
भाई सभी –
उठा लेते हैं स्तम्भों के मानिंद
बहन –
हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा
बहुएँ –
मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती है दीवाल में
तब
नयी पीढ़ी के बच्चे -

खिलखिला उठते हैं आँगन-सा
आँगन में खिले किसी बारहमासी फूल-सा
तभी गमक-गमक उठता है
एक अदद घर
समूचे पड़ोस में
सारी गलियों में
सारे गाँव में
पूरी पृथ्वी में


******

अमरस

बसंती काकी की माँ
आती है जब कभी गाँव
सभी बहुओं को
हो जाती है ख़बर
सुधियों के आधे फटे आधे साबुत पन्ने पर
उभर आता है
माँ का असीम और अपरिमापित दुलार
बीते दिनों
कई दिनों की घनघोर बारिश के बाद
आँगन तक उतर आई
सूर्य-किरणों की मानिंद
वे चाहती है
सुधियाँ न सही
बसंती काकी की माँ के आने की ख़बर
हमेशा-हमेशा के लिए
बगर कर रह जाए
जैसे जंगली फूलों की गंधवाली हवा
जैसे भरी दोपहरी सुनसान रास्ते में किसी चिड़िया की बोल

जानते हैं आप
यह ख़बर
कोई नहीं
बसंती काकी की माँ का लाया हुआ अमरस ही बाँटता है


******

शब्द ऐसा ही चाहिए

शब्द ऐसा ही चाहिए
जिसमें हों –
गाँव की भोली-भाली
छुईमुई लड़की के अंतस में
उफान मारता प्रेम
पड़ोसियों के खेत में
गर्भाती धान-बालियों की मदमाती गंध

जिसमें हों –
मिथ्यारोंपो, षडयंत्रों की गिरफ़्त में
छटपटाते सत्य की रिहाई के लिए
सबसे ठोस बयान
अंधड़ के बाद
धूल सनी आँखों से भी
क्षितिज तक
देखने की दृष्टि
शब्द ऐसा ही चाहिए

शब्द ऐसा ही चाहिए
जिसमें हों
सूखे में डूबी
जलती बस्ती के लिए
आम्ररस या पुदीने का शरबत
आदमी और आदमी के बीच
टूट चुके सेतु को
जोड़ने की उत्कट अभिरति

जिसमें हों -
अज़ान और आरती के लिए
एक ही अर्थ
और अंतिम अर्थ
अमानव के पदचाप को परख लेने की श्रवण-शक्ति
शब्द ऐसा ही चाहिए

******



कृष्णावतरण

संताप में डूबते-उतराते रहोगे कब तक
ज़िंदा रहोगे आख़िर कब तक अपमान में
चमत्कारिक पुरुष की बाट जोहते
हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तुम कब तलक
होना है मुक्तिदाता का अवरतरण कभी न कभी

इस समय हो रही
देवकी के सात-सात शिशुओं की
जघन्य हत्या के लिए
उत्तरदायी कौन होगा
कंस या तुम
कंस या तुम
कंस या तुम


******

कल देखना मुझे

आज
वक़्त की धधकती भट्ठी में
पिघलाया जा रहा हूँ
जैसे अयस्क
पूरी तरह
पकने के बाद
मैं सबसे पहले गिरूँगा
निगोड़े वक़्त की गरदन पर
पूरी शक्ति के साथ
धारदार तलवार बनकर
कल देखना मुझे


******

शर्त

शर्त यही है
मेरे साथ मित्रता की
कि आप बचाये रखना चाहते हों
दुनिया को साबुत शिद्दत के साथ

कि सिर्फ आपकी मित्रता के लिए
लुटती हुई दुनिया को
नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता अब

कि मेरी धड़कनों में सुनाई देता है
समुची दुनिया के लिए जाना-पहचाना छंद
छंद जिसे हवा-पानी-आग-भूमि-आकाश को
बाँटने की कलाबाजी भी तो आती नहीं
कहाँ से लाऊँ तुम्हारे जैसे घातक मन


मैं बाँह पसारे खड़ा हूँ दुनिया के गलियारे में
चले भी आओ
पर निःशर्त

******

कैसोवरी*, हमारे द्वीप में आना मत

कैसौवरी
हमारे द्वीप में मत आना
धूप तुम्हें रुचता नहीं
न ही पसंद मनुष्य का साथ
अप्रतिम सौंदर्य स्वामिनी
होने के बावजूद भी तुमने
छुपा ली है छुरा पंजे में
जैसे विषकन्या

कैसोवरी
हम चिड़िया होकर भी शामिल है
मनुष्य की कविता में
देह में हीमोग्लोबिन की तरह
वृक्ष में क्लोरोफिल की तरह
नदी में बहते जल की तरह
खेत में अन्न की तरह

कैसोवरी हम लामबंद है
खेलते-कूदते नये बच्चों से आबाद द्वीप में
किसी भी आक्रमण के लिए
भूलकर भी आना मत
हमारे द्वीप में

******

*आस्ट्रलिया और गुएना में पाई जाने वाली बेहद सुंदर किन्तु ख़तरनाक चिड़िया, जिसे मनुष्य की हत्या करने में संकोच नहीं होता ।

सत्यबीज

जला सकती नहीं अग्नि
डुबा सकता नहीं जल
उड़ा सकता नहीं मरूत्
छुपा सकता नहीं आकाश
समवेत चेष्टा से भी
भई किसे ?
सत्यबीज को

सत्यबीज
बगरता ही जाता है
पूरे गमक के साथ
उस के
नहीं होते कान
नहीं होती नाक
नहीं होती आँख
नहीं होती जीभ
उन सबके बावजूद
एक ही समय पर
सून सकता है हर आवाज़
सूँघ सकता है हर गंध
देख सकता है हर प्रघटना
चख सकता है हर रस
सत्यबीज होता है संपूर्ण

वह सिर्फ़ नहीं होता
राम-ईसा-पैंगबर या जरास्थू
सत्यबीज अंकुरित होता है
हमारी भी बस्तियों में
पाते हैं जिससे
गर्माहट- जैसे सूरज
होते हैं प्रकाशित – जैसे चंद्रमा
बुझाते हैं प्यास - जैसे नदी का तट

चलो आज ही
पूरे मन से
अकाल के बाद पहली बारिश में
किसान की भाँति
अपने-अपने दिल में रोप दें
सत्यबीज


******

और भी थे कुछ

महासंग्राम में दिखाई थी जिन्होंने मर्दानगी
वे अवतारी राम
पराक्रमी लक्ष्मण या महाबली हनुमान ही नहीं थे
नहीं थे केवल सेनापति सुग्रीव
युवराज अंगद
या फिर मंत्री जामवंत
नल-नील भी नहीं थे केवल
महासंग्राम में
प्राणोत्सर्ग तक कर देने वाले
और भी थे कुछ
कुछ भालू
कुछ वानर
लंका-विजय के पश्चात भी
लौट नहीं सके थे जो
अपने-अपने घर
कहाँ हैं वे अनाम इतिहास में
फ़िलवक़्त
भटके बिना रचनी होगी
कुछ गीत कुछ कविताएँ
केवल उन्हीं अनामों के नाम

जिनके बारे में हम जितना जानते हैं
उतना ही नहीं होता सब कुछ
और भी होता है कुछ

और भी थे कुछ

******



रतजगा

चूहा
नहीं कुतर सकता
तरकारी, रोटी, फल या नींव
अंधेरे की आड़ में भी
नज़रों से बचकर
सेंधमार चोर की तरह
होती भर रहे आवाज़

चूहा मारने के लिए
कतई ज़रूरी नहीं
सौ जनों की
बस
कोई एक गाता रहे बीच-बीच में
अपनी बारी के रतजगे में

देखना
सुबह तक साबुत बच जायेगा
घर
यानी सभी भाइयों का सपना
चूहों से

******



Monday, March 27, 2006

सफ़र में

पाँव धरते ही गिर सकते हैं
सूखती हुई नदी के टूटते कगार से
काई जमी चट्टान है अतीत
दूर बहु दूर है
दूसरे तट पर भविष्य
सबसे आसान है पहुँचने के लिए
वहाँ तक
चट्टानों को रगड़ती तेज़ धार में
धीरे-धीरे कद़म रखना
तिरछा
ति

छा


******

फिर से

फिर से
विश्वासघात कर रहा है बादल
फिर से

जलकुकड़ा सूरज जल रहा है
हवा फैल रही है फिर से ज़हर
ज़मीन दोस्ती कर रही है दीमकों के साथ
फिर से
परदेशी फिर से रवाना कर रहे हैं
ख़तरनाक टिड्डों की फौज
स्वदेशी फिर से छुड़ा रहे हैं
डाकू-ढोर-डंगरों को
अगर कुछ नहीं हो रहा है फिर से
तो सिर्फ़
विचारों की लहलहाती फ़सल को
बचा लेने की किसानी कोशिश


******

विदाई के बाद

तेजी से उतर कर बैठ जाता है
नदी के तल में लोहा
धँस जाता है मित्र वैसे ही अंतस में
बगर-बगर उठता है और भी मित्र
जैसे धान की कटाई के बाद
घर को कोना-कोना
हर विधा
हर शब्द
हर कथ्य
हर शैली
हर व्याकरण में
विहँसने लगता है एकबारगी
जैसे दिन में उजियाला
जैसे निशा में चाँदनी
जब भी
जहाँ भी
विलग होना पड़ता है मित्र को
नहीं पहुँच पाता
दरअसल विदाई के बाद
शुरू होता है मिलन
विदाई होती कहाँ है दरअसल

******



तीन कविताएँ

आत्मविश्वास

आग्नेय नैऋत्य ईशान वायव्य
आ धमकीं आवाज़े दशों दिशाओं से
जो मुझे एकबारगी लील जाना चाहती थीं
अजगर की तरह
पर हुआ उल्टा
आवाज़े बेजान गिरती चली गईं
कटे धड़ की तरह
मेरे विस्वास की आवाज पर
शक रहा हो गुरुतर आपको
मुझे तो क़तई नहीं


******


पाठ

जूतों के नीचे भी आ सकती है
दुर्लंघ्य पर्वत की मदांध चोटी
परन्तु इसके लिए ज़रूरी है-
पहाड़ों के भूगोल से कहीं ज़्यादा
हौसलों का इतिहास पढ़ना
******


एक कविता घड़ी पर

काँटो को देखा
पूजा-फूल तोड़ने निकल पड़ा पुजारी

ठीक इसी समय
ख़ून-खराबे के बाद
बीहड़ में गुम हो जाना चाहा डकैतों ने

ठीक इसी समय
हाट-बाज़ार, असबाब लादकर
पहुँचने के लिए व्यापारी बिलकुल तैयार है

ठीक इसी समय
चिड़ियों ने खोल दिया है
कंठ

ठीक इसी समय
सीमा पार गश्त बढ़ा दी है
फ़ौजियों ने

ठीक इसी समय तय सिर्फ हमें करना है
घड़ी थोड़े न किसी के कान में
मंत्र फूँकती है
कहती भी है तो
सबसे एक ही बात-एक ही संकेत
किसी भी समय

******

चिट्ठीः दो कविताएँ


एक

कविता में महक उठता वसन्त
पुतलियों से झाँकने लगता
सुर्ख सूरज
पंखुरियों में बिखर गया जीवन
हत्या से लौटा हुआ मन
तलाशता वनांचल का
आदिम लोकराग
क्यों करते पृथ्वी में स्वर्ग की तलाश
मिल गई होती काश
उनकी एकाध चिट्ठी


******


दो

देखते ही देखते
ख़तरा मँडराने लगा
देखते ही देखते
अहिंसक
एक-एककर
तब्दील हो गए जानवरों में
लगा जैसे समय
आग का पर्वत हो
लगा जैसे
भोला-भाला मन देकर
ईश्वर ने किया हो सबसे बड़ा पाप
क्यों दीख पड़ी
सुनहरे शब्दों की चिट्ठी
लड़की की नयी किताब में
******


अभी भी

गूँज रही है चिकारे की लोक धुन
पेड़ के आसपास अभी भी
अभी भी छाँव बाक़ी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक

चूल्हे के तीन ढेलो के ऊपर
खदबदा रहा है चावल-आलू अभी भी
पतरी दोना अभी भी दे रहे हैं गवाही
कितने भूखे ते वे सचमुच

धमाचौकड़ी मचा रहा है बंदर अभी भी
पुन्नी का चंदा अभी भी टटोल रहा है
यहीं कहीं खलखिलाहट
मेरा मन निकले भी तो कैसे
कहीं से भी तो लगता नहीं
उठा लिया है देवारों ने डेरा

******



जो हुआ नहीं पृथ्वी में

जो हुआ नहीं पृथ्वी में

बहुत कुछ होता रहा पृथ्वी में इन दिनों
अभी से कुछ-कुछ हो ऐसा
लौट चले उन सभी को
याद करते रहें
निहायत ज़रूरी दिनचर्या की तरह
जो सब कुछ सौंप कर चुपके से चले गये
हमारे बीच से कोई
जब भी बन जाए पोखर ताल झील नदी या समुद्र
तो भी वह बिना प्रतीक्षा
बहता चला आए
हममें से कुछ प्यासों के पास
हाथी के दाँत जो हों खाने के
हो वहीं दिखाने के
छोटी-मोटी कमज़ोरियों के साथ
सम्भाल ले पूरे सौ पैसे के सौ पैसे
मित्र की एक भी अच्छाई हो तो
गुनगुनाते रहें-गुनगुनाते रहें
जैसे प्रेमपत्र
हर भाषा में साफ़-साफ़ देखी जा सके
पृथ्वी की आयु निरन्तर बढ़ते रहने की अभिलाषा
ऐसा ही कुछ-कुछ कविता में
आज से अभी से
जो हुआ नहीं पृथ्वी में आज तक


******

तस्वीर के लिए

बच्चे जब उकेर रहे होते
घास-फूस वाली झोपड़ी
झोपड़ी के पास मीठे फल से लदे पेड़
पेड़ की डगाल पर खुशी बाँचती चिडिया

तब
बिलकुल भूल जाते हैं
गाँव से घुसा आ रहा है बवंडर
तेज़ करके रखी जा चुकी है कुल्हाड़ी
नये शिकार की फ़िराक में
निकल पड़ा है बहेलिया

चित्ताकर्षक तस्वीर के लिए
बहुत ज़रूरी है
उन्हें चौकस रखे
रंगो का कोई जानकार


******

शाम घिरने से पहले

मेरी कविता में वे ही जगमाएँगे
सितारों की तरह
मुखपृष्ठ में नहीं छापे जाते जिनके दर्द
दर्द के शीर्षक
जिनके हिस्से समर्पित
कुछ भी नहीं होता
परिचय सूची से जिनका
नामोनिशान मिटा दिया जाता है
पृष्ठ से नहीं
हाशिए से भी
मिटा दिया जाता है जिनका नाम
रद्दी की तरह फेंक दिए जाते हैं
जिनके हर शब्द, हर छंद
हँसने-रोने के अर्थ, हर अर्थ
जो जनमते हैं सिर्फ मरने-मारे जाने के लिए
उन हाथों तक पहँचा दूँगा
कविता की यह नयी किताब
शाम घिरने से पहले

******



ऐसे में तुम

रोटी देखते ही
दीखने लगे
खलिहान
खलिहान में पसीने से तर-बतर पिताजी
गेहूँ से कंकड़ बीनती माँजी का बुझा हुआ चेहरा
तर रही तवा-सी पत्नी
चिट्ठी पहुँचते
मन टटोलने लगें
बालसखाओं की ठिठोलियाँ
उत्सव के दिन धमा-चौकड़ी
नदी-तट पर चहल-पहल
सूरज ढ़लते ही
इर्द-गिर्द उगने लगे
चप्पे-चप्पे तक अकाल की गहराती छाया
बुरे समय का आतंक
ज़हरीली ख़ामोशी श्मशान मानिंद
ऐसे में तुम ऐसे में तुम सीधे चले आना
उजली झील को लाँघकर
तरई के पार

******



इधर बहुत दिन हुए

इधर बहुत दिन हुए
पगडंडियों में चला नहीं
नीम महुआ चिरौंजी जैसे कुछ शब्द
भेजे नहीं लिफाफे में
महक कहाँ पाया अपनी ही क्यारी में
सुलगा नही सका आग
ठूँठ और तूफ़ान में उखड़े दरख़्तों की पीड़ा
पढ़ी भी नहीं
सच की धूप से भागता रहा
नए ज़माने के पढ़े-लिखे छोकरों की तरह

रीढ़ की हड्डी को तानकर
रख पाया नहीं कभी
आत्महंता प्रश्नों को टालता रहा हर बार
एक भी बार
न चीखा न चिल्लाया
जैसे रहा हो कहीं रेहन में
तारीख़ों को बदलने की कहाँ की हरकत
सपने तो जैसे भूल गया देखना
किसी खूँटे से बँधे ढोर की तरह
एक ही परिधि के भीतर
लील रहा है घास

इधर बहुत दिन हुए
उन्हें एक आला सरकारी अफ़सर कहा जाता है


******

वापसी


पाँव में छाले घूमकर पथरीले रास्ते
गुम हो गयी इन घाटियों में कि सामने पहाड़
स्मृतियों के कोहरों में झाँक-झाँक जाते
पिछले ज़हरीले दिनों के कोलाज
कि युद्ध में लोहूलुहान घायल कोई अचेत सैनिक
उठ खड़ा क्षीण-छायावत

आज वे सभी थके हारे
लौटने के लिए इकट्ठे हैं इन वीरान घाटियों में
अपनी छोटी-सी दुनिया में लौट जाने के लिए
समूची दुनिया ग़ायब होने से पहले
बचा लेने के लिए

अब उनके पास कुछ भी शेष न रहने के बाद भी
एक चीज़ है और वह है लबालब
लौटने की मुस्कान, चमक आँखों में
कि सामने को ख़तरनाक पहाड़ भी सिजदे करे
इस ख़ुशी में बन्दगी में

******



नींद से छूटते ही चला जाऊँगा

नींद से छूटते ही चला जाऊँगा
मुस्कराहट से बेख़बर
ढेर सारी विपत्तियों
तमाम उहापोहों
समूचे बेगानेपन के
भँवरजाल से फँसे
भोर से पहले चिड़ियों की प्रभाती से कोसों दूर खड़े
उन सभी अपरिचितों के बिलकुल क़रीब
जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित हैं
जानना चाहूँगा उतना
जिसके बाद जानने को शेष न रहे रंचमात्र मुझसे
जैसी नदी
जैसे पहाड़
जैसी छांह
जैसी आग
जैसे शब्द
जैसी भाषा
जैसी कविता
जैसे जीवन राग
नहीं बनाया जा सकता दुनिया को बेहतर
सिर्फ इन्द्रधनुषी सपने रचते-रचते
सीधे चला जाऊँगा नींद से बचते-बचाते

******



ख़ाली समय

ख़ाली समय में
काँट-छाँट लेते हैं नाख़ून

कोने-अंतरे से झाड़-बूहार लेते हैं मकड़ी के जाले
आँगन की आधी धूप आधी छाँह में औधें पड़े
आँखों में भर लेते हैं आकाश
लोहार से धार कराकर ले आते हैं पउसूल

इमली या नीबू से माँज लेते हैं
पूर्वजों के रखे हुए तांबे के सिक्के
जगन्नाथपुरी की तीर्थयात्रा में मिले
बातूनी गाईड को कर लेते हैं मन भर याद

छू लेना चाहते हैं कोसाबाड़ी के
सभी साजावृक्षों और उसमें सजे-धजे
कोसाफल को मनभर
जैसे काले बादल

टूट चुकी नदी को
सौंप देते हैं मुस्कराहट

खाली समय भर-भर देता है हमें
वैसे ही लबालब


******

मनोकामना

तालाब का ठहरा हुआ पानी
बहता रहे भीतर-ही-भीतर
और सघन हों पहाड़ियाँ

उगे कुछ अधिक टहनियाँ
टहनियों पर कुछ और कोपलें फूटें
उससे ज्यादा फूल
फूल से ज्यादा फल

उमड़ पड़ें रंग-बिरंगी तितलियाँ
हवा कुछ क़दम और चलकर आ सके
खिड़कियाँ खुली हुई हों इससे अधिक
सपनों के और करीब हो आँखें

मुस्कानों में निश्च्छलता का अंश बढ़ता रहे
कोने अंतरे के रूदन से दहल उठे ब्रह्मांड
तारों को मुस्काता चेहरा दिखला रहे
चाँद कुछ ज्यादा ही बन पड़े सुन्दर
इसी तरह दीप्तिवान सूरज भी

इसलिए कि हम सभी को कहा जा सके
अधिक सुन्दर अधिक प्रखर
इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है
मनोकामनाओं की आयु और बढे़
बढ़ता ही रहे


******

नदी

नदी
हमारे सपनों में गुनगुनाती है अंतहीन लोगगीत
गीतों में गमकते हैं
कछारी माटी वाले हमारे सपने
पहुँचाती है पुरखों तक
अंजुरी भर कुशलक्षेम
दोने भर रोशनी

हमारी बहू-बेटियों की मनौतियों की
निर्मल चिट्ठी के लिए
जनम-जनम बनती है डाकिया
पूछती फिरती है सही-सही पता
बाधाओं के पहाड़ लाँघकर
नदी अन्न के भीतर पैठकर पहुँचती है
हमारे जीवन में
अथाह उर्जा के साथ

सभी के काम पर गुम हो जाने के बाद भी
बच्चों के आसपास रहती है कोई
तो
वह नदी ही है माँ की तरह
हमारे बच्चे अनाथ हुए बिना
रचते रहेंगे दोनों तटों पर गाँव
गाँव की दुनिया में मेले
जब तक उमड़ती रहेगी नदी
उनमें सतत


******

रास्ते

न कहीं जाते और न ही
कहीं से आते, स्थिर अपनी जगह
किसे पहुँचाते नहीं
मन-मुताबिक
गाँव-घर-खेत-खार-मंदिर-मस्जिद
मेले-ठेले-नदी-पहाड़ आक्षितिज समुद्र तक

इनके बारे में जब कहा जाता
कि ये नहीं थे तब भी थे ये
सृजन के पूर्व और प्रलय के बाद भी
फैलें और सिमट जाएँ क्षण में
धूप-छाँह, सर्दी-गर्मी, आँधी-पानी
हर हाल में ये ख़ुश, हर हाल में ख़ामोश

जितना सुनते
जो भी सुन पाते
जैसे हों औरत
जैसे कोई देवमूर्ति
बिना अहम् पाले
गन्तव्य तक पहँचाने में मुस्तैद

कितने वीतराग होते है
धूमधड़ाके के साथ गुज़रती बारात
कि जैसे इन्द्रधनुषी अभिसार
हाड़तोड़ मजदूरी के बाद घर वापसी
कि जैसे युद्ध से लौटता हो कोई
या आव़ाजों के ऐनवक़्त
सधे क़दमों के इंतजार में हैं
इस समय ये रास्ते

******



वनवासी गमकता रहे

संस्कारवान जब-जब
बैठा रहता है निस्पृह
निश्चिंत अपने कमरे में
तब-तब वह
कोलाहल उधेडबुन में धँस जाता है
बंद कमरे के भीत को लेकर

सभ्यजन जब-जब
दृष्टि को सिरहाना बनाकर
सोता रहता है
अपने कमरे में
तब-तब उसकी नज़रे रेंगती
फिसलती रहती हैं
अँधेरे की आड़ में
दूसरों के कमरे में
विचारशील जब-जब
गाँज-गाँज कर धार-धार अस्त्रों को भरता
अपने कमरे में
तब-तब पीछे छूटा समय
बना लेता है बंदी
उसके अपने कमरे में ही

वनवासी नहीं होता संस्कारवान
नहीं जानता सभ्यता को पढ़ने की
चतुर भाषा
विचारशीलता के बिम्ब भी
होते नहीं उसके पास
फिर भी चाहता रहूँगा ताउम्र
वनवासी गमकता रहे
कोठी में धान की मानिंद
गाँव में तीज-तिहार की मानिंद
पोखर में पनिहारिनों की हँसी की मानिंद
वन में चार-चिरौंजी की मानिंद

मेरी कविता में
अपरिहार्यतः
अनिवार्यतः


******

कुछ छोटी कविताएँ

हमारे घर

हमारे घरों में
जितना पसरा है गाँव
उससे अधिक पसर गया है शहर
जितने है शीतल जल के घड़े, उससे अधिक प्यास
जितनी खिड़कियाँ, दीवारें कहीं अधिक
जितनी हैं किताबें, कहीं अधिक दीमक
जितने भीतर उनसे ज़्यादा बाहर
जितने हैं असुरक्षित हम हमारे घरों में
उससे ज़्यादा सुरक्षित
हमारे घर सपनों में हमारे


******

छाँव-निवासी

धूप की मंशाएँ भाँपकर
इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता

******


अन्ततः

बाहर से लोहूलुहान
आया घर
मार डाला गया
अन्ततः

******


जुगनू

जब सूरज मुँह ढँककर सो जाता है
जब चाँद शर्म से दुबक जाता है
जब अनगिनत सितारे एक-एककर हो जाते हैं ग़ायब
जागते रहते हैं सिर्फ़ जुगनू
सूरज चांद सितारे भले ही न बना जा सके
जुगनू तो बना ही जा सकता है

******



पहाड़

आँधी-तूफ़ान
वर्षा-शीत-घाम
हर हाल में
सिर्फ वही रहे
अडिग अविचल

******



शिखर पर

लाँघनी पड़ती है
पगडंडी
बग़ैर लहूलुहान पाँवों से
अकेले ही
ख़ूंखार जंगल
दुर्गम पहाड़ियाँ
अँधेरी गुफाएँ
प्राणघाती घाटियाँ

यूँ ही कोई
नहीं पहुँच जाता शिखर पर

******



चयन

दोनों तरफ
मिल सकता है सुख

इधर अकेले में
जिन्हें नहीं करनी पड़ती कोई लड़ाई
उधर लड़ाई में
शामिल होना पड़ता है
सबके साथ
भीतर-ही-भीतर

रास्ते का चुनाव
तुम्हें करना है

******




ख़ौफ़

जाने-पहचाने पेड़ से
फल के बजाय टपक पड़ता है बम
काक-भगोड़ा राक्षस से कहीं ज़्यादा भयानक

अपना ही साया पीछा करता दीखता
किसी पागल हत्यारे की तरह
नर्म सपनों को रौंद-रौंद जाती है कुशंकाएँ
वालहैंगिंग की बिल्ली तब्दील होने लगती है बाघ में

इसके बावजूद
दूर-दूर तक नहीं होता कोई शत्रु
वही आदमी मरने लगता है
जब ख़ौफ समा जाता है मन में

******



ठण्डे लोग

जो नहीं उठाते जोखिम
जो खड़े नहीं होते तनकर
जो कह नहीं पाते बेलाग बात
जो नहीं बचा पाते धूप-छाँह
यदि तटस्थता यही है
तो सर्वाधिक ख़तरा
तटस्थ लोगों से है

तटस्थ उपाय नहीं ढूँढते
नहीं करते निर्णय
न ही करते कोई विचार

उपाय, निर्णय या विचार
इनके बस का नहीं
ऐसे ही शून्यकाल में
तटस्थ हो जाते हैं कितने निर्मम
कितने दुर्दम

दीखते हैं कितने ख़तरनाक
ख़ुद को शरीफ़ बनाए रखने में
पृथ्वी को ज़्यादा दिनों तक
सुरक्षित नहीं रखा जा सकता


******



जीत

पतंग के कटने से पहले ही
लूटी जा चुकी धागा-चकरी
हार गया हूँ आज
जो कभी न हारा था
लेकिन
मन तो मन है
धागा-चकरी सा घूम रहा
एक महीन तागा अन्तहीन
सरकता ही जाता है
नीलिमा में
एक टुकड़ा चटक लाल
कभी नीचे कभी ऊपर
कभी गोल-गोल चक्कर में
ऐंचता-खैंचता
उड़ता ही रहता है
जीत और किसे कहते हैं
कि मन उड़ता ही रहे
बिन धागा-चकरी के

******

एक जरूरी प्रार्थना

मौत से पहले एक बार जरूर
बीज देख सके
भरा-पूरा वृक्ष
डगाल पर ‘दहीमाकड़’ खेलते बच्चे
सबसे ऊपर फुनगी पर रचे घोंसला
घोंसले में अंडे सेती चिड़िया
ठंडी छांह में सुस्ताते
बासी-पेज पीते चरवाहे
बाबा से सीखी बाँसुरी की पुरानी धुनें
मीठी हवा का सरसराकर गुज़रना
इस सब के अलावा
सब कुछ में
एक पुष्ट बीज का सपना
देख सके मौत से पहले बीज
सदियों से सँजोया सपना


******

बचे रहेगें सबसे अच्छे


अच्छे मनुष्य बचे रहेंगे
उनके हिस्से की दुनिया से
चले जाने के बाद भी
लोककथाओं की असमाप्त दुनिया के
राजकुमार की तरह

बहुत अच्छे मनुष्य बचे रहेंगे
उनके हिस्से की दुनिया से
चले जाने के बाद भी
हवा-आग-पानी की तरह
अपनी दुनिया के आसपास की दुनिया में

सबसे अच्छे मनुष्य बचे रहेंगे
उनके हिस्से की दुनिया से
चले जाने के बाद भी
ख़ुशबू की तरह
समूची दुनिया को छतनार
करते हुए गुलाब की तरह
ख़ुशबू जो आग-हवा-पानी है

******



ख़तरा

कोई खतरा नहीं
जंगल भीतर

हरीतिमा में यदि पगडंडी
गुम हो गई
तो भी कोई बात नहीं

भटकने के बाद भी
एक ही दिशा में चलते रहना
कोई खतरा नहीं

कोई खतरा नहीं
माँद से निकलते
हिंसक पशुओं से

खतरा यदि कहीं है तो
मन में घात लगाए बैठे
घुसपैठिये से
भय से


******

जाने से पहले

डेरा उसाल अनदेखे ठिकाने के लिए
जाने से पहले समेटना है
ठिन ठिनिन ठिन घंटियों के बोल पर
झूमते गाते पेड़
लहलहाते पेड़
मरकत द्वीप-जैसे डोंगरी के
आदिवासी पेड़

समुद्री छाँव में घन-सघन वृक्षों की
सुस्ता रहे थके माँदे अजनबी कुछ लोग
कुछ मीठी नींद में खर्राटे भर रहे
बह रहे सपने अलस पलकों में
कि उसमें जुड़ रहे कुछ लोग

रोचक लोग,
रोचक बातचीत,
जनकथाएँ
रोचक आस्था-विश्वास
इतनी सारी चीज़ें छोड़ जानी है
कुछ ज्यादा ही तादाद में
जाने से पहले


******

अशेष

आँधी-तूफान उठा
आया
आकर चला गया
सब कुछ उखड़ने-टूटने के बाद भी
बचा रह गया
थिर होने की कोशिश में
काँपता हुआ एक पेड़
कहने को
कहने को तो
बची रह गयी
पेड़ पर एक भयभीत चिड़िया भी
कोई ग़म नहीं
शिकवा भी नहीं
गीत सारे-के सारे
बचे रह गए


******

सुघड़ता

सिर्फ़
नशीले फूलों
कड़वे फलों
ज़हरीली पत्तियों
धोखेबाज टहनियों को
काट-छाँट कर नहीं रह सकते निरापद
पैठो ज़रा और भीतर
सुघड़ता के लिए
विचारों की जड़
गहरी धँसी रहती है
मस्तिष्क की कन्हारी मिट्टी में

******

वनदेवता से पूछ लें

घर लौटते थके माँदे पैरों पर डंक मार रहे हैं बिच्छू
कुछ डस लिए गये साँपों से
पिछले दरवाजे के पास चुपके से जा छुपा लकड़बग्घा
बाजों ने अपने डैने फड़फड़ाने शुरू कर दिए हैं
कोयल के सारे अंड़े कौओं के कब्जे में
कबूतर की हत्या की साज़िश रच रही है बिल्ली
आप में से जिस-किसी सज्ज्न को
मिल जाएँ वनदेवता तो
उनसे पूछना जरूर
कैसे रह लेते हैं इनके बीच

******

दाग


इस समय
नहीं दीख रहा कछुए का श्रीमुख
मेंढक भी थक चुके टर्रा-टर्रा कर
नावें थिरक गयी हैं डाल लंगर
सपनों के लिए चली गईं मछलियाँ
गहराइयों में
सीप भी अचल आँखें खोले तटों में
घुस गए हैं केंचुए गीली मिट्टियों में
समुद्र की समूची देह पर
जागती है चाँदनी
चाँद नहीं है समुद्र में
लेकिन देखने वाले
देख ही लेते हैं
दाग़ सिर्फ़ दाग़


******

जनहित

कोई
सड़क के बीचों-बीच
पसर गया है
ख़ून से तर-बतर
समय का एक कत्थई धब्बा होने से पहले
आप जान गए पहचान गए
हाँ वही डकैत
क्या करेंगे आख़िरकार आप
डॉक्टर के पास उठा ले चलेंगे
या फिर पुलिस थाना
कहना मुझे सिर्फ़ यह है
बुद्धिमानी हर हमेशा
ठीक नहीं
जनहित के लिए


*******

Sunday, March 26, 2006

बहुत कुछ है अपनी जगह

समय अभी शेष है
रास्ते भी यहीं कहीं
भूले नहीं हैं पखेरु उड़ान
ठूँठ हुए पेड़ में हरेपन की संभावना भी
नमक कम हुआ कहाँ पसीने में
नहीं दीखती हुई को देख सकती है आँखे
राख के नीचे दबी है आग
बहुत कुछ नहीं होते हुए भी
है बहुत कुछ अपनी जगह
फ़िलहाल
मैं छोड़ नहीं रहा दुनिया
और गहरे पैठ जाना चाहता हूँ
जीवन में

रहस्य

जैसा था जितना था
जीया मुकम्मल
कल के गणित में खपाया नहीं सिर
गुम्बदों मीनारों की ओर
निहारने की कोशिश भी नहीं
सीना तानकर झेला सारे प्रश्नों के तीर
चमकता रहा उसकी देह का खारापन
दिन भर
महका जितना महक सकता है
एक साबुत फूल दिन भर
गाया उतने ही अंतरे
जितना आम पकने के मौसम में कोयल
रहस्य
मनमाफ़िक नींद का
नींद में शीतल सपनों का
और कुछ भी नहीं था


******

लाख दुश्मनों वाली दुनिया के बावजूद

कुछ हो न हो
मेरे हिस्से कि दुनिया में
रहूँ दुनिया के हिस्से में मैं
सोलह आने न सही
लेकिन दनिया की तरह

विवशताएँ हों
ताप बढ़ाने के लिए
सकेले गए गीले जलावन की तरह
सफलताएँ भी ऐसी
कि न हो औरों की विफलताएँ जिनमें
थोड़ी-सी नींद
नींद में निटोरती आँखें
ढोर-डंगरों से बचाने लहलहाते खेतों से
सभी दिशाओं से
उफान मारती नदी हों
पर नाव भी तो आसपास एकाध

काँटे चाहे जितने हों
पैरों के नाप पर कोई मंज़िल भी तो हो
छकने के लिए छप्पन-भोग
तो अकाल में
कनकी पेज से भी तो संतोष हो

जितनी अठखेलियाँ हों इधर
लापरवाही के माने
कम्प्यूटर, मोबाइल, कार पोर्च वाली
इमारत न सही

हों जरूर कार्तिक-स्नान के दिनों में
रात को भिगोए हुए फूल
देवता के लिए
चुकते हुए शब्दों के लिए
हों संदर्भ कोई नवीन
औषधि की तरह
भले ही शब्द हों निढाल
मंत्र हो सिद्ध सभी, हो जाएँ भोथरे
निरपराधों को विद्ध करने के पहले

सूरज पुराना
नक्षत्र-ग्रह-तारे
सबी अपनी जगह
लेकिन हर दूसरे दिन
कुछ ज़्यादा मोहक
कुछ अधिक अधिक लुभावने
कुछ अधिक प्रेमातुर लगें
कभी घृणा के लिए अवकाशभी तो हो
प्रेम में आकण्ठ डूबने के लिए
मन में उपान की शर्तों पर

कुछ घात लगाएँ दुश्मन
मीठे बोल के ख़तरनाक पड़ोसी
कहीं से आएँ तो सही यकायक
बुरे वक़्त में दोस्त कोई देवदूत की तरह

कुहासे, धुंध, तुषारापात के
बीचोंबीच कोई चाँद भी हो तो
किरण बिखेरने के लिए
मेरे हिस्से की दुनिया में


******

कुछ बचे या न बचे

(डॉ. बलदेव के लिए*)

सँभाल कर रखना होगा
माँदल की थाप
दुखों को रौंदते घुंघरुओं की थिरकन
चाँदनी बिखेरती
सदियों पुरानी रागिनियों का रसपान करती
रात की ढलान

दूर-दूर पहाड़ियों पर
मेमनों के लिए बची-खुची
घास का अहसास कराती हरियाली
दुनिया को जगमगाते ओस
मौमाखियों के छत्ते
डगाल पर आँधियों से बचे
लटकते घोंसले में चूजों को
दाना चगाती बया

खेत पर रतजगे के अलाव के लिए
हरखू की चकमक
ऐपन ढारती नई बहू
अपने हिस्से के काम जैसे
पुरखों की वाचिक परम्परा में कोई आत्मकथा

कुछ सँभले या न सँभले
कुछ बचे या न बचे
टूटता-बिखरता ढाई आखर जरूर सम्हले
धूप-छाँही रंग में
सँभाल रखना ही है

फिर-फिर उजड़ने के बाद भी
बसती हुई दुनिया को


******
* डॉ. बल्देव हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ समीक्षक एवं कवि हैं जिन्होंने छायावाद के संस्थापक कवि श्री मुकुटधर पांडेय की प्रतिष्ठा के लिए लगातार कार्य किया है ।

डैने

आँधी-तूफ़ान उठा दूर कहीं
घिरी दिशाएँ
उखड़ने-उजड़ने के बावजूद
रह गया सिहरता एक पेड़

कुछ कहने को
कहने को बची रह गयी जो भयभीत चिडि़या
बचा भी क्या है उसके पास
प्रभाती कहने के सिवाय

गा चिड़िया
सबेरा जगा चिड़िया
सूरज उगा चिड़िया

चिड़िया
ओ चिड़िया
डैने फैला ओ चिड़िया


******

निकल आ

सुरागों की पथरीली गंध से किरणें
अक्सर हो जाती हैं उदास
फिर फैलाती हैं चहुँदिशि
नैश अंधकार

प्रकाशित नहीं कर पाती बाहर की दुनिया
कि ठीक-ठाक देखा जा सके भीतर तक

ऐसे में कई बार ख़तरा होता है
अन-अस्तित्व होने का

ओ सशंकित मन
निकल आ बाहर
इधर
अपने गुहा से

यहाँ सूरज की पुतलियों में उभर रहा है
समूचा ब्रह्मांड समूची पृथ्वी
एक-एक ग्रह, नक्षत्र, उल्का पिंड
नीलिमा का विस्तार

इनमें कलरव है कोलाहल है
और कुतूहल भी कम नहीं


******

अब जो दिन आएगा

(छत्तीसगढ़ राज्य गठन पर)

सिर्फ़ एक ही अर्थ होगा
धान की पकी बालियों के झूमने का
आँखों में जाग उठेगी
नदी की मिठास
पर्वतों की छातियों में
उजास और पूरी-पूरी साँस
आम्र-मंजरियों की हुमक से
जाग उठेंगी दिशाएँ
सबसे बड़ी बात होगी
अब जो दिन आएगा
नहीं डूबेगा किसी के इशारे पर
सबसे छोटी बात
रात आएगी सहमी-सी
और चुपके से खिसक जाएगी
आँख तरेरते ही


******

मृत्यु के बाद

शमशान के काँटेदार फ़ेंस पार करने के बाद
पेड़-पत्तों-फूलों की दुनिया नज़र आएगी
पंखुड़ियों पर बिखरे होंगे सपनीले ओसकण
सूर्योदय के विलम्ब के बावजूद
फूलचुहकी गाएगी, इतराएगी
रोशनी की अगवानी करेगी
तब हवा भी गाएगी दुखों का इतिहास
नए अंदाज़, अभिनव छंदों में
जगन्नाथ मंदिर का पुजारी
फेफड़ों में समूचा उत्साह भरकर
फूँकेगा शंख
तुलसीदल और हरिद्रा-जल
चढ़ने के बाद बँटेगा
निर्माल्य
वहीं-वहीं सजल नेत्रों से
मैं भीखड़ा रहूँगा
तु्म्हारे द्वार पर


******

ख़ुशगवार मौसम

पुतलियों में उतर आयी
प्रसन्ना नदी अलस सुबह
शंख शीपी शैवालों समेत
घंटियों की गूँज
आवृत्त कर रही समूची देह को
यहीं-कहीं जोत रहा है बैशाखू
खेत जो अभी-अभी मुक्त हुआ है
मूँगे-मोती अभी-अभी जो मुक्त कर लाए गए हैं
खींच रहा है हलपूरी ताक़त से
अश्रु ढुलक रहे हैं गालों पर
बारिश में छत उखड़ने के बाद भी
हवा को चीरती वह साँवली लड़की
मुस्करा रही है
दिशाओं में भर रही है लाली
मौसम ख़ुशगवार है
आकाश झुक गयाहै कंधों पर
पूरी मुस्तैदी से वह जोत रहा है खेत
पूरी ताक़त से खींच रहे हैं लकीरें
मूँगे और मोती
जबकि आज लड़ाई
पूरी तरह बन्द है


******

ऊहापोह

उफनती नदी की शक्ल में
मसकता है लावा
और समतल पहाड़ियाँ उग आती हैं
गूँजता है बीहड़ों से
आदिम राग
गफा और भी ख़ूँखार हो उठता है
पौधे उतार फेंकना चाहते हैं हरीतिमा
राहु को घोषित कर देता है चैम्पियन
बुझता हुआ चन्द्रमा
लकड़हारा बन जाता है कालिदास
खाई कहाँ नज़र आती है खाई
आकाश जा बैठता है रसातल की जगह
उलटी दिशा में ज़ोरदार घूमने गलती है पृथ्वी
तेज़-तेज़ दौड़ने के बावजूद
रहते हैं वहीं के वहीं
बैठे-बैठे औंधे मुँह हो जाते हैं
जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से
विवेक गम हो जाता है
जैसे अनाड़ी के हाथ से
गिर गया हो कोई सिक्का अथाह नीलिमा में

ऐसे वक़्त
सब कुछ होने के बावजूद कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होने के बाद भी हो जाता है बहुत कुछ
ऊहापोह से बढ़कर ख़तरा
और क्या हो सकता है

*******

पता नहीं

कभी मीठा-खारा पानी
लोहा पत्थर कभी
कुछ-न-कुछ होता है प्राप्य
जब ज़मीन खोदते हैं आप या हम
पितरों की अनझुकी रीढ़ के अवशेष
माखुर की डिबिया
चोंगी सुपचाने वाली चकमक
मर्ति में देवता
देवता के हाथों में त्रिशूल खडगबाण
नाचा के मुखौटे
कभी भी मिल सकते हैं
यह सब पता है हम सभीको
पता नहीं है
हम कहाँ उड़ रहे


*******

कहीं कुछ हो गया है

(एक जवान मजदूर की अकाल मृत्यु पर)

जस का तस
चिड़ियों के झुरमुट से बोल उठना
बूढ़ी औरतों का झुलझुलहा स्नान
प्रभाती की लय में गाँव
छानी-छानी मुस्कराहट सूरुजनारायण की
आँगन बुहारती बेटियों का उल्लास
बछिया कोबीच-बीच पिलाकर गोरस निथारना
दिशाओं मे उस पार तक
उपस्थित होती घंटी-घड़ियाल की गूँज
पानखाई तराई से बूँ-बूँद जलसमेटती
पनिहारिनों में ‘रात्रि कथा वाचन’
अजीब सी उदासी है सबके भीतर
फिर भी
कहीं कुछ हो गया है
लोग फफक-फफक कर बताते हैं
पूछने पर
एक भलामानुस
माटी के लिए दिन-रात खटता था जो
माटी में खो गया यक-ब-यक

*******

अभिसार

आना होगा जब उसे
आना होगा जब उसे
रोक नहीं सकती
भूखी शेरनी – सी दहाड़ती नदी
उलझा नहीं सकते
जादुई और तिलिस्मी जंगल
झुका नहीं सकते
रसातल को छूती खाई
आकाश को ऊपर उठाते पहाड़
पथभ्रण्ट देवताओं के मायावी कूट
अकारण बुनी गई वर्जनाएँ
समुद्री मछुआरों की जाल-सी
दसों दिशाओं को घेरती प्रलयंकारी लपटें
अभिसार के रास्ते में
नतमस्तक खड़ा हो जाता है सृष्टि-संचालक
स्वयं पुष्पांजलि लिए
आना होगा जब-जब उसे
वह आएगा ही


*******

मिलन पाठ

बिल्ली के बिल्ले
मलाई के लिए लड़झगड़ कर
कहीं अँधेरे में दुबके होंगे
चूहों की टोह में
झिंगुर
फुसुर-फुसुर कर लेते हैं
बीते दिन को कोसा जा रहा हो जैसे
चाँद छुप चुका है बादलों की गुफा में
फैल चुकी है चाँदनी लबाललब
देह-कक्ष में
एक पी जाना चाहता है उसे अंतिम बूँद तक
डूब-डूब जाना चाहता है
गहराई के सभी क्षितिजों में
एकबारगी बगरकर
मिट-मिट जाना चाहती है दूसरा
रच-रच जाना चाहती है उसमें अपना
असीम विस्तार
अलग-अलग नाम से
रूप-रंग-शिल्प-व्याकरण से
उन दोनों को कोई लिख सके
क़तई संभव नहीं
इस समय तो क़तई नहीं


*******

अकाल में गाँव : तीन चित्र

।।एक।।

डबडबा उठी हैं सपनों की आँखें
विधवा-सी
पैंजनी / करधनी / चूड़ियों की मन्नतें
मुँह लुकाए
कहीं अंधेरे में बैठा है
त्यौहार वाला दिन
बाँझ की तरह
ससुराल से मायके की पैडगरि के बीच
लापता है गाड़ी वाले का गीत
घंटियों कि ठुन-ठुन
चित्त पड़ा है किसान
छिन्न-भिन्न मन
इधर बहुत दिन हुए
दादी की कोठी में
नहीं महकता दुबराज वाला खेत
उदासी में
डूबा हुआ है गाँव


।।दो।।

इस साल फिर
बिटिया की पठौनी
पुरखौती ज़मीन की
काग़ज़-पतर नहीं लौटेगीसाहूकार की तिजोरी से
बूढ़ी माँ की अस्थियाँ
त्रिवेणी नहीं देख पायेंगी
रातें काटेंगी
बिच्छू की तरह
दिन में डरायेंगे
आने वाले दिनों के प्रेत
सपनों में उतरेगा
रोज़ एक काला दैत्य
मुखौटे बदल-बदल
कबूदर देहरी छोड़कर
चले जायेंगे कहीं और
समूचाघर
पता नहीं
किस अंधे शहर की गुफा में
और गाँव
किसी ठूँठ के आस-पास
पसरा नज़र आता
मरियल कुत्ते की तरह
भौंकता


।।तीन।।

मनचला दुकानदार
किसान की बेटियों से करता है
चुहलबाज़ी
षड़यंत्र छलक रहा है
बाज़ार से
गोदाम तक
ब्याजखोर रक्सा की आँखों में
नाच रही हैं
पुरखों के जेवरातों की चमक
जलतांडव की बहुरंगी तस्वीरें उतारकर
आत्ममुग्ध हैं कुछ सूचनाजीवी
डुबान क्षेत्र के ऊपर
किसी बड़ी मछली का फ़िराक़ में
उड़ रहे हैं बगुले
शहर के मन में
जा बैठा है सियार
गाँव
सब कुछ झेलने के लिए
फिर से है तैयार


*******

Saturday, March 25, 2006

अनुक्रमणिका विवरण



















01. जब कभी हो ज़िक्र मेरा
02. सबसे अच्छा परजा
03. मिसिरजी
04. अनन्त बीज वाला पेड़
05. लोग मिलते गये काफ़िला बढ़ता गया
06. मनौती
07. आयेगा कोई भगीरथ
08. प्रायश्चित
09. खतरे में है बचपन
10. वज़न

जब कभी हो ज़िक्र मेरा

याद करना
पीठ पर छुरा घोंपने वाले मेरे मित्रों के लिए
मेरी प्रार्थनाएँ “हे प्रभु इन्हें माफ़ करना”

याद करना
हारी हुई बाज़ी को जीतने की क़शमक़श
पूर्वजों के रास्ते कितने उजले कितने घिनौने
कि ग्रह नक्षत्र,तारों में छप गये वे लोग उजले लोग

याद करना
सम्बे समय की अनावृष्टि के बाद की बूँदाबाँदी
संतप्त खेतों में नदी पहाड़ों में हवाओं में
कि नम हो गई गर्म हवा
कि विनम्र हो उठा महादेव पहाड़ रस से सराबोर
कि हँस उठी नदी डोंडकी खिल-खिलाकर
कि छपने लगी व्याकरण से मुक्त कविता की
आदिम किताबसुबह दुपहर शाम छंदों में
वह मैं याद करना

यादकरना
ज़िक्र जिसकाहो रहाहोगा
वह बन चुका होगा
वह बन चुका है वनस्पति कि जिसकी हरीतिमा में
तुम खड़े हो बन चुका है आकाशकी गहराइयाँ
कि जिसमें तुम धंसे हो

याद करना
न आये याद तो भी कोशिश करना तो करना
कि अगली पीढ़ी सिर झुकाकर शर्म से
कुछ भी न कह सके हमारे बारे में
जब कभी हो ज़िक्र हो मेरा

*********



सबसे अच्छा परजा

जो राजा की पालकी के साथ

नहीं दौड़ती

जो राजा के जूतों का गीत

नहीं गुनगुनाती

जो राजा की मुद्राएँ देखकर

चेहरे की भाषा नहीं बदलती

जो राजा के यश के लिए

फ़क्क़ सुफ़ैद शब्द नहीं जुटाती

अच्छी परजा होती है वह भी

अच्छा परजा जनमती है

बिरादरी की ख़ुशहाली के लिए

अच्छी परजा चली जाती है

बिरादरी की ख़ुशहाली के लिए

सबसे अच्छी परजा बहुत बुरी होती है

राजा के राजपत्र में

परजा ही होती है

अच्छा राजा


**********



मिसिर जी

कितनी बार
न जाने कितना बार
वक़्त की गाज़ झेला हूँ
दुर्निवार मौत के साथ
कबड्डी खेला हूँ

कितनी बार
न जाने कितना बार
सबूत चुटाने पड़े हैं
वायवी तारकोली कंलकों से
चेहरे की चमक
साबुत बचा लेने के लिए

कितनी बार
न जाने कितनी बार
आकांक्षाओं को दफ़नाया है
बुदबुदाहट तक की
पाबंदियाँ झेलते हुए
सपनों को करनी पड़ी है
ख़ुदक़ुशी

कितनी बार
न जाने कितनी बार
मिसिर जी
अब क्या टूटूँगा
झूलूँगा अबक्या डोरे से
ऐसे ही नहीं पुहुँचा हूँ
इस मुकाम पर


********

अनन्त बीज वाला पेड़

(कवि स्व. चिरंजीव दास को स्मरण करते हुए)


खलिहान में बगरे धान की तरह
अंतिम छोर तक
साथ देने वाले गमकते शब्द
गुनगुना रहे हैं भीतर-ही-भीतर
बस्ती में फैल रही है
भाषा की मीठी आग
छेरछेरा के लिए पर्रा-टुकनी धरे
बच्चे के चेहरे पर
उतर आया है उत्सव
गउड़िया-कीर्तन डंडा-नाच की धुन में
कभी भी झूम उठेगी
बड़ी-टमाटर पकाती कन्याएँ
बूढ़े जो अबसज्जन बन चुके हैं
बाँच रहे – कार्तिक पुराण
सूरज जल-बुझ रहाहै उनकी छानी में
वहा मुस्तैद है उनके साथ हो लेने के लिए
केलो नदी उनके पिछवाड़े के आसपास
है अब भी
प्रतीक्षा में ग़ज़मार पहाड़ उनसे
कुछ सुनने्
मगर कांदागढ़के मीट्टी का
अनन्त बीज वाला पेड़
अब कहीं नहीं दिखता
धूप भरी गलियों में

********

लोग मिलते गए काफ़िला बढ़ता गया

अनदेखे ठिकाने के लिए
डेरा उसालकर जाने से पहले
समेटना है कुछ गुनगुनाते झूमते गाते
आदिवासी पेड़
पेड़ की समुद्री छाँव
छाँव में सुस्ताते
कुछ अपने जैसे ही लोग
लोगों की उजली आँखें
आँखों में गाढ़ी नींद
नींद में मीठे सपने
सपनों में, सफ़र में
जुड़ते हुए कुछ रोचक लोग


* * * * *

मनौती


पकने लगते हैं जब अमरूद
बाड़ी नहीं
घर नहीं
मोहल्ला नहीं
समूचा गाँव
एकबारगी महक उठता है
मीठी और एक जरूरी गंध से


महिलाएँ मनबोधी फल को
मन के लाख न चाहते हुए भी
शहर में छोड़ आती हैं
नोन, तेल, साबुन के लिए

पकने लगते हैं जब अमरूद
चिड़ियों की दुनिया
उतर आती है इधर ही
बच्चों के गमछे में भर-भर जाता है
सुबह
शाम
दोपहर का नाश्ता –सब कुछ


माएँ सिलाती है अमरूद
बड़े भोर से जागते ही
ऐसे वक्त
वे कोसती भी हैं चिड़ियों को
ठीक अपने औलाद की तरह
वैसे भी
बच्चे और चिड़िया पर्याय हैं परस्पर
अमरूद के पेड़ से चिपके रहते हैं
आखिर दोनों
एक दिन भर तो रात भर दूसरा


पिता अमरूद तोड़ते वक्त
मनौती माँगते हैं रोज़
एक भी पेड़ अमरूद का
सूख न पाये और पकने का मौसम
हरा रहे पूरे बारहमास


पता नहीं
मनौती
कब पूरी होगी


* * * * *

आयेगा कोई भगीरथ

आर्यावर्त में
महाकाल-सी स्तब्धता
पुत्र सभी बिखरे पडे़
जैसे कंकड़ पत्थर
भस्म में तब्दील
मुनि कपिल के श्राप से
मिलेगा कब कैसे
वंशसूर्यों को पुनर्जीवन
कौन कर सकेगा अवतरण पतित-पावनी गंगा का
समय का सर्वाधिक चुनौती भरा प्रश्न
कहीं कोई हलचल नहीं
अभिमान की प्राणवायु स्थिर-सी
ऐसे खतरनाक क्षणों में बहरे युग के सम्मुख
उद्धारकों के आह्वान से
कहीं बेहत्तर है अस्मिता की रक्षा के लिए
एकाकी घोर तपस्या करना
अब जबकि मुँह लटकाए खड़े
कुछ बिलकुल अनजान
कुछ आदतन टालू और कोढ़ी
बावजूद इसके
ओ मेरे पूर्वजो !
धैर्य धरो
जाह्नवी के साथ
हमसे से ही कोई
आयेगा एक दिन भगीरथ

* * * *

प्रायश्चित



मन को कोना-कोना
साफ़-सुथरा दीख रहा है
जैसे लिपा-पुता घर-आँगन
हलाक हुआ उतना अधिक
भर उठा है जितना
चमक रहा है एक बूँद सूरज कपोल पर
आँखों के रास्ते अड़ते-अड़ाते
उमड़ पड़ा है अथाह विश्वास
ख़ुद पर
पहली बार
* * * * *

ख़तरे में है बचपन


तितली-जैसे दिन को
नोच-नोच कर
फेंक दिया गया है
रद्दी काग़ज की तरह

काले राक्षस ने
दबोच लिया है
नर्म-नाज़ुक सपनों को
गमकने से पहले
ज्यों चंदा को राहू

हरे-भरे पाठों वाली किताबें
लूटी जा चुकी हैं
तानाशाह से
विदेशी आक्रमणकारी की भाँति
अधखिंची रेखाओं वाले हाथों में

चहकते गुड्डे-गुड़ियों को
तब्दील कर दिया है
लालची जादूगर ने
माचिस
बारूद
पत्थर में

ऐसे में क्या बचेगा
दिन को फेंके जाने के बाद
क्या बचेगा सपनों को दबोच लिए जाने के बाद
आखिर क्या बचेगा
किताबों को लूट लिये जाने के बाद
दुनिया में
माचिस बारूद और पत्थर के सिवा

सावधान
खतरे में है बचपन
कभी भी नेस्तनाबूद हो सकता है
समूचा जीवन
***********

होना ही चाहिए आँगन

वज़न

धरती का वैभव उँचाई आकाश की
सूरज की चमक या हो
चंदा की चाँदनी
पूरी भलमनसाहत
सारा-का-सारा पुण्य
समूची पृथ्वी पलड़े में
चाहे रख दो सावजी
डोलेगा नहीं काँटा
रत्ती भर
किसी ने रख दिया है चुपके से
रत्ती भर प्रेम दूसरे पलड़े में

* * * * * * * * *

फ्लैप पर भूमिका

अपनी धरती की तलाश
श्री नंदकिशोर तिवारी

जयप्रकाश मानस के दूसरे काव्य संग्रह ‘होना ही चाहिए आँगन’ में संग्रहीत कविताएँ मनुष्य के राग को लोक के राग के साथ जोड़ती संस्कृति के नए आयाम ढूढ़ती हैं । अपनी जगह तलाशती हैं । भूमंडलीकरण से उत्पन्न बाज़ारवाद की विभीषिका के बीच अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं ओर सपनों का संसार ढूंढ़ती हैं । मनुष्य के आदिम राग को अभिव्यक्ति देती है, जहाँ से मनुष्य ने जीवन प्रारंभ किया और उससे अलग कहीं दूर जाकर पुनः उन स्मरणों में पहुँच जाना होता है ।

‘गूँज रही है चिकारे की लोकधुन
पेड़ के आसपास अभी भी
छांह बाकी है
जंगली जड़ी-बूटियों की महक ’
कहने को इसे नास्टेलजिया कहा जा सकता है परंतु यह एक बड़े अर्थ में खोयी हुई धरती में अपनी धरती की तलाश है । वह धरती जो कवि की मूलतः अपनी धरती है, जो प्रकारांतर से सबकी होती एक अनूठे संसार की रचना करती है उसकी ताप को बचाए रखने की कोशिश करती है- ‘छेना आग को बचाए रखता है बहुत समय तक ’ इस संग्रह की कविताओं में घर, आंगन, मां, पिता, भाई, बहिन, सब हैं पर उनके दायरे हैं जो कहीं बंद होते जा रहे हैं । जब कभी बंद से हो जायें हम / आकाश को निहार कर खुल-खुल जाएँ ।
सच ये है कि ये कविताएँ लोक राग का पाठ हमें भी पढ़ाती हैं ।

नंदकिशोर तिवारी
संपादक, लोकाक्षर
विप्र सहकारी मुद्रणालय मर्यादित
कुदुदण्ड, बिलासपुर (छत्तीसगढ)

होना ही चाहिए आँगन

आदिम लोकराग तलाशती कविताएँ

0 श्री रमेश दत्त दुबे

हमारे समय में तो पुस्तक से भूमिका और मनुष्य से आश्चर्य दोनों विलुप्ति के कगार पर हैं । वह आश्चर्य ही तो है जिसके चलते प्रकृति के नानावर्णी रूप उद्घटित हुए हैं । इसी आश्चर्य के सहारे कलायें अपने अर्थ और अभिप्रेतों के लिए प्रति-प्रकृति की संरचना करती रही हैं । पुस्तक की भूमिका-पुस्तक का आश्चर्य है, जयप्रकाश से वर्षों पूर्व रायपुर में एक संक्षिप्त सी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मेरा लिखा पढ़ा भी अधिक नहीं है-हांलाकि वह अधिक है भी नहीं- फिर मुझसे भूमिका लिखवाने का क्या कारण हो सकता है । सोचता हूँ तो पाता हूँ कि आदिम लोकराग को सुनना-तलाशना ; हम दोनों को एक ही भावभूमि पर प्रतिष्ठित करता है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहीं लिखा है- ‘भावों के मूल और आदिम राग ही हमारे हृदय को अधिक छूते है और इसका कारण हमारे हृदय में प्रतिष्ठित वह वासना है जो हमारे जीवन की लय को ; कुल जीवन की लय से जोड़ती है – जिसका साहचर्य, परम्परा और संस्कृति का साहचर्य बनता है । ’
इस संग्रह की कविताएं ‘आदिम लोक राग’ को सुनती ‘ पृथ्वी में स्वर्ग की’तलाश करती कविताएं हैं । लेकिन मात्र इतना ही होता-

“गूँज रही चिकारे की लोकधुन / पेड़ के आसपास अभी भी
अभी भी छांह में बाकी है/ जंगली जड़ी-बूटियों की महक ”

तो यह एक ऐसी विवरणिका होती जो ‘आह मेरा लोक-वाह मेरा लोक’जैसे नास्टेलजिया में लोक को देखती बांचती कविता ही होती । लेकिन इन कविताओं में भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिकता के दबावों के चलते निरन्तर क्षरित और विकृत होते हुए लोक को बचाने की जो कोशिश है, उसके कारण इन कविताओं में ताप है, आक्रोश है, मुठभेड़ करने का हौसला है, गहरा आत्म विश्वास है-

“मेरे विश्वास की आवाज पर / शक रहा हो गुरुतर आपको / मुझे तो कतई नही ”क्योकि कवि ‘पहाड़ों के भूगोल से कहीं ज्यादा / हौसलों का इतिहास ’ पढ़ता है वह जानता है ‘तनी रीढ़ की हड्डी मर्मान्तक हार के बावजूद / हर जीत के लिये / हर बार / जरूरी है ।’

कवि का, कविता पर यह भरोसा पूरे संग्रह की कविताओं में छलछलाता है लेकिन यह आत्म विशास कहीं भी बड़बोलेपन या शहीदी मुद्रा में अभिव्यक्तनहीं होता क्योंकि वह एक ऐसी काव्य दृष्टि की मनौती करता है-

‘कैसे छुएं हर सम्बन्ध को
कि समूची पृथ्वी तब्दील हो जाये
एक छोटे कुनबे में’

ये कविताएं हमारे समय में, भाषा के बूझते संसार में, शब्द की प्रतिष्ठा के लिये भी मुठभेड़ करती हैं । ये कविताएं लोक के पास जाकर केवल हमारी कविता की शब्द सम्पदा ही नहीं बढ़ातीं, बल्कि कविता के ताप और संसार के लिये पदार्थ भी बचाती हैं –
‘ छेना आग का बचाये रखता है
बहुत समय तक ’ –(गोबर के बहाने तीन कविताएं कविता) के लिये दोनों चाहिए-हरसिंगार की तरह झरती भाषा और अपूर्व पदार्थमयता ।
इन कविताओं में वंचितों की अनेक अनुगूंजें सुनायी देती हैं, जो इतिहास को कटघरो में खड़ा करके कविता से इन्साफ मांगती हैं -

‘लंका विजय के पश्चात भी
लौट नहीं सके थे जो
अपने-अपने घर
फिर कभी
कहाँ हैं वे अनाम इतिहास में
फिलहाल
भटके बिना रचनी होंगी कविताएं
केवल उन्हीं अनामों के नाम’

(यहाँ मुझे कुंवर नारायण की एक कविता याद आती है लाक्षागृह, लेकिन राजन / लाक्षागृह में जो शव पड़े मिले / वे किसके थे) लोक ऐसे मिथक गढ़ लेता है, जो इतिहास में नहीं है । अपने न्याय से वह इतिहास के चरित्रों को चुस्त-दुरुस्त भी करता है । फैसला भी सुनाता है । जयप्रकाश वंचितों की इस परंपरा को इतिहास और उससे परे देखते हुए हमारे समय में अपने उत्तरदायित्व की भी घोषणा करते हैं-

“संताप में डूबते- उतराते रहोगे कब तक
देवकी के सात-सात शिशुओं की
जघन्य हत्या के लिये उत्तरदायी
कौन होगा
कंस या तुम / कंस या तुम / कंस या तुम”

इन कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि यें संदेश-उपदेश नहीं देती । किसी निष्कर्ष के लिये अन्त की ओर नहीं सरकतीं । ये कविताएँ अपने विचार-अनुभव को अपनी संपूर्ण संरचना को रचाती-पचाती हुईँ, किसी एक हिस्से को नहीं, संपूर्ण को रोशन करती हैं । जयप्रकाश में अपने समय के प्रति गहरा आक्रोश है-

‘फिर से विश्वासघात कर रहा है बादल
फिर से जलकुकड़ा सूरज जल रहा है’

कवि जानता है कि उसका समय- मुँह लटकाये खड़े, बिलकुल अनजान, टालू और कोढ़ी, रीढ़ हीन जन्तु, शुतुरमुर्ग लोगों का है, फिर भी मुठभेड़ के लिये वह अकेला ही योद्धा नहीं है- वीरवर, पराक्रमी और भी है गंगा-अवरतरण के लिये-

‘जाह्ववी के साथ
हममें से ही कोई
आयेगा एक दिन भगीरथ ’

कवि का यह विश्वास जहाँ रचना को बड़बोलेपन से बचाता है-

सूरज मुँह ढककर सो जाता है.......
जागते रहते सिर्फ जुगनू
सूरज चांद सितारे भले ही न बना जा सके
जुगनू तो बना ही जा सकता है’

वही रचना पर विश्वास में फलित और चरितार्थ होता है -
‘सब कुछ उखड़ने –टूटने के बाद भी
बचा रह गया
थिर होने की कोशिश में
कांपता हुआ एक पेड़......
बची रह गयी
पेड़ पर एक भयभीय चिड़िया भी
गीत सारे-के-सारे
बचे जो रह गये
ये कविताएँ भरोसे की कविताएँ है । इनके इस भरोसे में विचार भी शामिल है – ‘अगर कुछ नहीं हा रहा फिर से / तो सिर्फ / विचारों की लहलहाती फसल को / लेने की किसानी कोशिश’
विचारों से अटी पड़ी हमारी सदी में, कवि विचार को बचाने के लिये किसानी कोशिश की बात कर रहा है यानी कोठारों में सिते-रखे अन्न को, अपने समय में नवान्न में बदलने की पुनर्नवा करने की । इसलिए ये कविताएँ किसी विचार की पिछलग्गू नहीं हैं । रचना पर भरोसा ही विचार है-

‘बच्चे जब उकेर रहे होते
घास फूस वाली झोपड़ी
झोपड़ी के पास मीठे फल से लदे पेड़........
तब बिलकुल भूल जाते है
गाँव में घुसा आ रहा है बबंडर ........../
चित्ताकर्षक तस्वीर के लिये
बहुत जरूरी है
उन्हें चौकस रखे रंगो का कोई जानकार’

अमानवीयता के खिलाफ़, रचना के लिये जगह बनाना ही कवि का विचार है । यहाँ बड़ी आसानी से, ऐसी कविताओं को वाम रूझान की कविताएँ कह दिया जाता है जबकि ये कुल मनुष्यता की रूझान की कवितायें है, तभी तो कवि कहता है-

‘तलाशना होगा
सबसे उत्तम जीवन के लिये
अब तक अनुत्तरित आदिम प्रश्न का उत्तर’

इस संग्रह की कवितायें शिद्दत से अनेक कोणों से घर को याद करती हुई कविताएँ है-पूरी पृथ्वी को घर की तरह याद करती हुई ये कविताएं-

कैसे छुएं हर संबंध को
कि समूची पृथ्वी तब्दील हो जाये
एक छोटे से कुनबे में
गाँव में छूट गये एक अदद घर को तलाशती कविताएं भी हैं । माँ, पिता, भाई, बहिन, बहुएं, बच्चे के संसार से ही घर को नहीं पाती- उन्हें चाहिए---------“हवा और प्रकाश बटोरती खिडकी, खिलखिलाता हुआ आँगन / आँगन में चाहिए तुलसी चौरा-माँ की तरह, पृथ्वी को निर्भार करता लिपा-पुता घर आँगन’ ऐसा.........

जब कभी बन्द-बन्द से हो जायें हम
आकाश को निहार कर खुल-खुल जायें

अपने इस छूटे हुए घर को कवि गद्गगद् स्वर में याद ही नहीं करता बल्कि उसे बचाये रखने के लिये मुठभेड़ भी करता है-

हमारे घरों में
जितना पसरा है गाँव
उससे अधिक पसर गया है शहर
जितने असुरक्षित हम हमारे घरों में
उससे ज्यादा सुरक्षित
हमारे घर सपनों में हमारे
घर चार-दीवारों का रिहायशी मकान ही नहीं होता । लोक में समूचे गाँव को घर कहा जाता है । लोक मन व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होता है । लोक में अकेला कुछ भी नहीं होता । उसकी तो रचना तक सामूहिक होती है । व्यक्ति और समाज के अद्वैत के अर्थ में लबें समय तक रची जाती है और अन्त में लोक की स्थायी स्मृति बन जाती है । यह स्मृति मर्तबान नहीं है, जिसमें रखा अचार बासा होकर भी सड़ने से बच जाता है । लोक इस बासेपन को निरंतर ताजा करता रहता है । बुन्देली में एक कहावत है- ‘बाप (दूध) बड़ो, बेटा (दही) बड़ो, नाती (छाछ) बड़ो अमोल, पे पनात (नवनीत) पैदा भयो तीनों तें अनमोल’ लोक की सामूहिकता और परम्परा को पुनर्नवा करने की शक्ति इन कविताओं में सतत प्रवाहमान है ।
बाजारीकरण निरंतर घरों को नष्ट कर रहा है । भावनात्मक स्तर पर भी और यथार्थ के धरातल पर भी । घर दुकानों में तब्दील हो रहे हैं । कभी मैने एक समीक्षा में लिखी थी- ‘अशोक बाजपेयी की कविताओं का भूगोल’ । हमारे समय में घर को याद करने वाले अशोक जी अकेले और अप्रतिम कवि हैं । अशोक जी की कविताओं में उनकी भोपाल-दिल्ली की कविताओं में ही नहीं, आविन्यों की कविताओं में भी उनके जनपद (सागर) का भूगोल धड़कता है । बरसों बाद जब बाजपेयी जी सागर आये तो अपने पुश्तैनी मकान को ही नहीं पहचान पाये । पूरा वार्ड बाजार बन गया है । तभी तो अशोक जी ने मुझसे कहा था – रमेश, इन घरों में जो लोग रहते थे, वे कहाँ चले गये ? हमारे समय में घर बेदखल हुआ सो रिश्तों-संबंधों की अजस्त्र प्रवहनी गंगा ही अवरूद्ध हो गयी है । घर जिसे आदमी ने अपनी सुरक्षा के लिये बनाया था, आज......बाहर से लहूलुहान आया घर / मार डाला गया / अन्ततः घर नहीं रहे सो आंगन भी नहीं रहे , जबकि

हो या न हो छत
हो या न हो फर्श
हो या न हो दीवालें
घर के भीतर
छोटा ही सही
होना ही चाहिए आंगन
आंगन नहीं रहा सो उसमें लगा पेड़ –
झूमते गाते पेड़
लहलहाते पेड़
मरकत द्वीप जैसे डोंगरी के
आदिवासी सपने संजोये पेड़

नही रह गये सो आंगन में उसकी पसरी छाया नहीं रही गयी, तोतो- चिड़ियों द्वारा खाये अधखाये फल नहीं रह गये, सावन में झूला डालने के लिये पक्षियों को रैनबसेरा के लिये उनकी शाखायें नहीं रह गयी है और यह सब सिर्फ इसलिये नहीं कि-

“छांह-निवासी
धूप की मंशाएं भाँपकर
इधर-उधर, आगे-पीछे, दाएं-बाएं
जगह बदलते रहते
दरअसल
पेड़ से उन्हें कोई लगाव नहीं होता ”
और न सिर्फ इसलिये कि
‘जाने-पहचाने पेड़ से
फल के बजाय टपक पड़ता है बम ’

बल्कि इसलिये कि हमारा समय उस अपसंस्कृति का शिकार हो रहा है जहाँ .....
‘होना
इफरात जगह
ढेर सारे असबाब के लिये
आदमी के लिये
नहीं के बरोबर
घर में’

जबकि हमारी संस्कृति में मनुष्य को सृष्टि का कर्ता बनाने पर नहीं, उसके साथ समरस होने, चर-अचर के प्रति सहज भाव से समर्पित होने पर बल दिया गया है । हमारी संस्कृति सृष्टि की प्रत्येक जीवात्मा के साथ साहचर्य की संस्कृति है । यह साहचर्य का भाव ही हमारे साहित्य का प्राण है –

‘भोर से पहले चिड़ियों की प्रभाती से कोसों दूर खड़े
उन सभी अपरिचितों के बिलकुल करीब
जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित है
जानना चाहूंगा उतना
जिसके बाद जानने को शेषन रहे रंचमात्र मुझसे
जैसे नदी
जैसे पहाड़
जैसे छांह
जैसे आग
जैसे शब्द
जैसे भाषा
जैसे कविता
जैसे जीवन-राग’

ये कविताएं लोक के ऐसे अजान और संवेदनशोल हिस्सों की तलाश की कविता है जो यन्त्र सभ्यता के जरिये कुचले जाने के बाद, अब भूमंडलीकरण के आगे क्षत-विक्षत हो रहा है । मनुष्य का जीवन और जगत सब कुछ बेदखल हो रहा है । इस बेदखली से कविता का तो मानो संसार ही उजड़ा जा रहा है । यह कविता ही तो है इस विपुल प्रकृति से भी काम नहीं चलता, इसलिये वह प्रति प्रकृति रचती-बनाती है । ये कविताएं कविता की इसी शक्ति की आस्था की कविताएं हैं-

‘हर भाषा में साफ-साफ देखी जा सके
पृथ्वी की आयु निरंतर बढ़ते रहने की अभिलाषा’

जयप्रकाश मानस की ‘प्रार्थना’-
“इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है मनोकामनाओं की आयु और बढ़े ”
के साथ, हम उनकी , उनकी कविता और यश की सुदीर्घ आयुष्य की कामना करते हैं ।
0 रमेश दत्त दुबे
कृष्ण गंज, पुलिस चौकी के सामने
सागर, मध्यप्रदेश

Friday, March 24, 2006

हिन्दी की लघुपत्रिकाएँ

हिन्दी की लघु पत्रिकाएँ

(मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक एवं अनियतकालीन)



अतएव
श्री हरीश नारायण सिंह
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन हिन्दी भवन, 6,
महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

अमिधा
श्री अशोक गुप्त
राजेन्द्रपुरी, मुजफ्फरपुर,
उत्तरप्रदेश- 842001

अपना बचपन
श्री महेश सक्सेना
जे-9, कस्तूरबा स्कूल के पीछे, जवाहर चौक, भोपाल
मध्यप्रदेश-462003

अपूर्वा
श्री यू. एस. आनन्द
तेलीवाड़ा मार्ग, दुमका, बिहार

अट्टहास
सुश्री शिल्पा श्रीवास्तव
10, गुलिस्ता कॉलोनी, लखनऊ,
उत्तरप्रदेश-226001

अब
श्री शंकर, अभय, नर्मदेश्वर
74, इ, गोरक्षिणी पथ
सासाराम, बिहार-821115

अक्षरगंधा
डॉ. हरिवंश तरूण
आनन्द भवन, बहादुरपुर
समस्तीपुर, बिहार

अक्षर पर्व
श्री ललित सुरजन
देशबन्धु परिसर, रायपुर
छत्तीसगढ़

अकार (त्रैमासिक)
श्री गिरिराज किशोर
11/210-ए, सूटरगंज, कानपुर (उत्तरप्रदेश)-208001

अंचल भारती
श्री जयनाथ मणि
देवरिया, रामनाथ, देवरिया
उत्तरप्रदेश-274001

अंतदृष्टि
श्री विनोद दास
बी-3/8, नाबार्ड कॉलोनी, जगतपुर रोड़
मालवीय नगर, जयपुर, राजस्थान

अनुभूति के फूल

श्री नीरज शर्मा शुभम
ओशो अनुभूति, रामबाग कालोनी
रामघाट रोड, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश

अलाव
श्री राम कुमार कृषक
नागार्जुन नगर, सादतपुर,दिल्ली

अभिनव प्रसंगवश
डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ
द्वारिकापुरी, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश-281001

अभिव्यक्ति
श्री शिवराम
4 पी-46, तलवंडी, कोटा, राजस्थान

अभिव्यक्ति सृजन
श्री गोपाल कौशल
20, कौशल पान सदन, बस स्टेंड
ग्राम माकनी, पो.नागदा,
जिला-धार, मध्यप्रदेश

अविरल मंथन
श्री राजेन्द्र वर्मा
3/29, विकास नगर, लखनऊ
उत्तरप्रदेश

अक्षर
डॉ.सुकुन पासवान ‘प्रजाचक्षु’
भारतीय साहित्य परिषद
दलसिंह सराय, समस्तीपुर-848114

अक्षर खबर
श्री सुरेश जांगिड
डी.सी.निवास के सामने,करनाल रोड
कैंथल, हरियाणा-136027

अक्षरा
श्री विजय
हिन्दी भवन, श्यामला हिल्स, भोपाल
मध्यप्रदेश- 462002

अक्षर शिल्पी

राजूरकर राज
एल-18, श्रद्धाराम काम्पलेक्स,
जोन-1 महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (मध्यप्रदेश)

अरावली उद्घोष
पथिक
टीचर्स कालोनी, उदयपुर, राजस्थान

अनन्त अविराम
श्री ओमप्रकाश दीप
अघोरेश्वर कृपाकेन्द्र, राघौगढ, मध्यप्रदेश

अनुभूति
श्री नीरज शर्मा
रामघाट रोड़ अलीगढ़, उत्तरप्रदेश

अवध अर्चना
श्री विजयरंजन
अवध अर्चना प्रकाशन
फैजाबाद, उत्तरप्रदेश

असुविधा
श्री रामनाथ शिवेन्द्र
ग्राम-खडुई, पो.आ.-पन्नूगंज
जिला-सोनभद्र, उत्तरप्रदेश-231213



आकंठ
श्री हरिशंकर अग्रवाल
इंदिरा वार्ड, पिपरिया, मध्यप्रदेश

आकार
श्री बसन्त कुमार परिहार
1/1, पत्रकार कॉलोनी, नारायण पुरा,
अहमदाबाद, गुजरात-380013

आकार
श्री अशोक विश्वनोई
सागर तरंग प्रकाशन
29-ए, गाँधीनगर, मुरादाबाद
उत्तरप्रदेश-244000

आचार्य कुल
डॉ. गुरूशरण
68, सिंधी कॉलोनी, ग्वालियर
मध्यप्रदेश

आदर्श कौमुदी
श्री मेघासिंह चौहान
निकट रेलवे स्टेशन, नजीवाबाद
बिजनौर, उत्तरप्रदेश

आभा
श्री धन्नूलाल डावर ‘उत्पल’
बजरंग कॉलोनी, पाथाखेड़ा
बैतूल, मध्यप्रदेश

आनंद भारती
श्री बलभद्र कल्याण
आनन्द शास्त्री, राष्ट्रीय हिन्दी विकास संस्थान
बी-116, बुद्ध कॉलोनी
पटना, बिहार-1

आनन्दरेखा
आचार्य परेशानन्द अवधूत
आनन्दमार्ग प्रचारक संघ
527, वी.आई.पी.नगर, तिलजला
कोलकाता, पश्चिम बंगाल-700039

आधारशिला
श्री दिवाकर भट्ट
बड़ी भुखानी, हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तरांचल

आलोचना

आजकल
श्री बलदेव सिंह मदान
प्रकाशन विभाग, पटियाला हाउस, दिल्ली- 110001
दूरभाष- 23387876
ई-मेल-
indiapub@nda.vsnl.net.in

आवेग

श्री प्रसन्न ओझा
47/2, महात्मा गाँधी मार्ग, सोनासपा मार्केट
दूसरी मंज़िल, इन्दौर, मध्यप्रदेश

आश्वस्त
सुश्री तारा परमार
8 बी, इन्द्रपुरी, सेठीनगर
उज्जैन, मध्यप्रदेश-456016



इस बार

श्री मधुकर सिंह
धरहरा, आरा, बिहार





उद्भावना
श्री अजेय कुमार
एच-55, सेक्टर-23, राजनगर
गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश

उन्नयन

श्री प्रकाश मिश्र
406, त्रिवेणी रोड़, कीटगंज, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश

उत्तरा
संपादक
परिक्रमा, तल्लीताल, नैनीताल
उत्तरप्रदेश – 263002,
फोन- 236191
E-mail:
uttara@hotmail.com









अं

अः





कंचनलता
डॉ. भरत मिश्र प्राची
डी-8, सेक्टर-3 ए, खेतड़ी नगर, राजस्थान

कल के लिए
श्री जयनारायण
अनुभूति, प्लानिंग कॉलोनी के पीछे
सिविल लाइन्स, बहराइच
उत्तरप्रदेश- 271801

कला
श्री कलाधर
आदर्श नगर, नया टोला, लाइन बाजार
पूर्णिया, बिहार-825301

कृति ओर
श्री विजेन्द्र
सी-133, वैशाली नगर, जयपुर, राजस्थान-302021

काव्यम्
श्री प्रभात पांडेय
31, सर हरी राम गोयन का स्ट्रीट, कोलकाता (प. बं.)

कथन
श्री रमेश उपाध्याय
107, साक्षरा अपार्टमेंट, ए-3
पश्चिम विहार, नई दिल्ली

कथा
श्री मार्कण्डेय
ए डी-2, एकांकी कुंज, 24, म्योर रोड़
इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश211001

कथाक्रम
श्री शैलन्द्र सागर
4, ट्राजिंट होस्टल, वायरलेस चौराहे के पास
लखनऊ, उत्तरप्रदेश- 226006

कथा चक्र
श्री अखिलेश शुक्ल
सुचेता प्रकाशन, 63, तिरूपति नगर
इटारसी, मध्यप्रदेश- 461111
दूरभाष- 0752-243090
ई-मेल-
akilsu@sancharnet.in

कथाबिम्ब
डॉ. माधव सक्सेना
ए-10, बसेरा आफ दिनक्वारी रोड, देवनार, मुंबई

कथादेश
श्री हरिनारायण
सहयात्रा प्रकाशन प्रा. लि.
सी-52, जेड़-3, दिलशाद गार्डन, दिल्ली

कथासागर

डॉ. तारिक असलम ‘तस्नीम’
लेखनी प्रकाशन, 6/2, हारुन नगर फुलवारीशरीफ
पटना, बिहार -801509
फोन- 0612-252979

कदम
श्री जयप्रकाश धूमकेतु
223, प्रकाश निकुंज, पावर हाउस रोड़
निजामुद्दीन पुरा, मउनाथ भंजन, मउ
बिहार- 275101

कर्मनिष्ठा
डॉ. मोहन तिवारी ‘आनंद’
50, महावली नगर, कोलार रोड़, भोपाल
मध्यप्रदेश, 462042

कलमदंश

श्री योगेन्द्र मौदगिल
2393-94, न्यू हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
सेक्टर-12, पानीपत, हरियाणा-132103
फोन-098962-02929

कविता श्री
श्री नलिनीकांत
अण्डाल, पश्चिम बंगाल-713321



खनन भारती
श्री राजेन्द्र पटेरिया
वेस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड
कोल इस्टेट, सिविल लाइन्स
नागपुर, महाराष्ट्र-440001



गीतकार
पद्मश्री गोपालदास नीरज(प्र.संपादक)
933/2, तंवर मार्ग
नजफ़गढ़ रोड़, नई दिल्ली-100015

गीतान्तर
प्रो. रामस्वरूप सिन्दूर
4/ 113, विवेक खंड, गोमती नगर,
लखनऊ, उत्तरप्रदेश

गोलकोण्डा दर्पण
श्री गोविन्द अक्षय,
13-6-411/2, रामसिंहपुरा,
कारवान हैदराबाद (आन्ध्रप्रदेश) 50067



चलकर राह बनाती हम
संपादक
आस्था प्रशिक्षम केन्द्र
सुखदेवी नगर, बेदला, उदयपुर
राजस्थान-313011
फोन-0294-2440130
E-mail:
astha39@sancharnet.in

चेतना
श्री दिवाकर गोयल
राजभाषा कार्यान्वयन समिति
भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण
नेताजी अन्तर्राष्ट्रीय विमानपत्तन
कोलकाता, पश्चिम बंगाल-700052

चेतना स्त्रोत
श्री कृष्ण मुरारी ‘विकल’
ई-11, पाण्डेय का तालाब कॉलोनी
लखनऊ, उत्तरप्रदेश-226004

चैतन्य प्रकाश
श्री राजकुमार सोनी
अमृत प्रकाशन
एफ-18, प्रथम तल, देशपाण्डे काम्प्लेक्स, गुजरात रोड़
नया बाज़ार, ग्वालियर (मध्यप्रदेश)





जगमग दीप ज्याति
श्री महावीर मार्ग, अलवर, राजस्थान -301101

जन-आधार
श्री महेश कुमार दीप
शीतल गली, राघौगढ, गुना, मध्यप्रदेश

जाह्ववी
श्री भारत भूषण चढ्ढा
डब्ल्यू जेड़-41, दसघरा, निकट टोडापुर
इन्द्रपुरी, नयी दिल्ली



झंकृति
डॉ. शशिप्रभा सिन्हा
मनोरम, राजेन्द्र पथ, धनबाद, बिहार



टॉलिक समाचार
श्री राजीव सारस्वत
मुंबई उपक्रम, न.रा.का.स.
पेट्रोलियम हाऊस, मुंबई
महाराष्ट्र-40020
E-mail:
rsarswat@hpcl.co.in






तद्भव
श्री अखिलेश
18/271, इंदिरा नगर, लखनऊ
उत्तरप्रदेश- 16

तनाव
श्री वंशी माहेश्वरी
57, मंगलवारा, पिपरिया
होशंगाबाद, मध्यप्रदेश-461775

तटस्थ
डॉ. कृष्ण बिहारी सहल
पुलिस लाइन के पीछे, सीकर, राजस्थान

तीर्थराज त्रिवेणी
संपादक
भारतीय संस्कृति सेवा प्रतिष्ठान
वृन्दावन, प्रतिष्ठान मार्ग, अहमदनगर
महाराष्ट्र

तुलसी मानस भारती
श्री अंबाप्रसाद श्रीवास्तव
मानस भवन, श्यामला हिल्स, भोपाल
मध्यप्रदेश- 462002

त्रिवेणी

श्री कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड
डी-28, मंदिर साइड, क्वाटर्स, बिड़लापुर
दक्षिण 24 परगना, पश्चिम बंगाल






दस्तक
श्री राघव आलोक
साराजहाँ, मकदमपुर, पो.-टाटानगर
जमशेदपुर, झारखंड-831002

दस्तावेज
श्री विश्वनाथ तिवारी
पो. बेतियाहाता, गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

दायित्वबोध
श्री विश्वनाथ मिश्र
ने.पी.जी.कॉलेज, बड़हलगंज गोरखपुर
उत्तरप्रदेश


दिव्ययुग

श्री जगदीश दुर्गेश जोशी
62, मिश्र नगर, अन्नपूर्णा मार्ग
इन्दौर, मध्यप्रदेश-9

दिव्यालोक
श्री जगदीश किंजल्क
साहित्य सदन, सी-5, आकाशवाणी कॉलोनी
सिविल लाइन्स, सागर, मध्यप्रदेश
फोन-07582-220114

द्वीप लहरी
श्री बलराम अग्रवाल
हिन्दी साहित्य कला परिषद
अण्डमान निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101





नवलेखन

संपादक
2621, आवास विकास कॉलोनी
सैक्टर 11-12, फेस-2, पानीपत
हरियाणा

नई ग़ज़ल
डॉ. महेन्द्र अग्रवाल
रामेश्वरम, सदर बाज़ार, शिवपुरी
मध्यप्रदेश-473551

नई गुदगुदी
श्री विश्वम्भर मोदी
अनुकम्पा, शिवाजी नगर, सिविल लाइन्स
जयपुर, राजस्थान-302006

नया ज्ञानोदय

डॉ. प्रभाकर क्षोत्रिय
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड़
नई दिल्ली-110003

नया पथ
श्री राजेश जोशी/राम प्रकाश त्रिपाठी
एम. आई. जी.-99, सरस्वती नगर
भोपाल, मध्यप्रदेश-462003

नवोदित स्वर
डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी
42, इन्दौर रोड, देहरादून
उत्तरांचल

नटरंग
श्री अशोक बाजपेयी-रश्मि बाजपेयी
बी-31, स्वास्थ्य विहार, विकास मार्ग
दिल्ली- 110092

नागरी संगम
डॉ. परमानंद पांचाल
नागरी लिपि परिषद, 19, गाँधी स्मारक निधि
राजघाट, दिल्ली-110002

नारी अस्मिता
डॉ. रचना निगम
15, गोया गेट सोसायटी, शक्ति अपार्टमेंट, बी ब्लाक
द्वितीय तल, एस / 3, प्रतापनगर, बड़ोदरा, गुजरात

नारी का संबल
श्रीमती शकुंतला तरार
एकता नगर, सेक्टर 2, गुढ़ियारी
रायपुर, छत्तीसगढ़-492009
मो.-98261-28151

निमित्त
श्री श्याम सुन्दर निगम
1415, पूर्णिया रतनताल नगर
कानपुर, उत्तरप्रदेश

निष्कर्ष
श्री गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव
59, खेराबाद, सुल्तानपुर

नैणसी
श्री अशोक ढेडिया
मैसर्स इन्सटेण्ट प्रिन्टर्स, 3
अरविन्द सरणी, कोलकाता
पश्चिम बंगाल-700005



पहल
श्री ज्ञानरंजन
राम नगर, आधारताल, जबलपुर, मध्यप्रदेश

पहचान यात्रा
डॉ. राजेन्द्र सोनी
पहचान-प्रकाशन (त्रैमासिक)
कुशालपुर, रायपुर (छत्तीसगढ)492001
फोन, न. 0771-2243589

पहाड़
श्री शेखर पाठक
परिक्रमा, तल्ला डांडा, तल्लीताल
नैनीताल, उत्तरांचल-263002

पल प्रतिपल
देश निर्मोही
आधार प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16
पंचकूला (हरियाणा) 134113

पनघट
श्री जवाहर बेकस
रूपांकन, पो. बा. 203, पटना, बिहार

पंजाबी संस्कृति
डॉ. राम आहूजा
9/20, ओल्ड कैम्पस, सी.सी.एस.एच.ए.यू
हिसार, हरियाणा-125001

परिचय
श्री प्रकाश शुक्ल
बड़ महादेवा कॉलोनी
पीरनगर, गाजीपुर
उत्तरप्रदेश- 233001

परिधि
श्री नरेन्द्र नवीन
महेन्द्रू, पटना, बिहार- 800006

परिधि
डॉ. अनिल कुमार जैन
सचिव, हिन्दी-उर्दू मज़लिस
पोष्ट आफिस के पास, बड़ा बाज़ार
सागर, मध्यप्रदेश-460002

पुरूष
श्री विजयकांत
निरालानगर, गोशाला रोड, मुजफ्फरपुर
उत्तरप्रदेश- 842002

पूर्वग्रह
श्री मदन सोनी
सी-2/43, शाहजहाँ रोड, नयी दिल्ली

पृथ्वी और पर्यावरण
श्री महेश अनघ
टाईप-3/38, शास्त्री नगर, ग्वालियर, मध्यप्रदेश

प्रकाशन समाचार
श्री अशोक माहेश्वरी
राजकमल प्रकाशन प्रायव्हेट लिमिटेड 1-बी
नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
फोन- 23274463

प्रतिमान
श्री अनिल कुमार झा
अनुराग प्रकाशन, विद्यापति नगर
गोड्डा- 814133

प्रयास
श्री अशोक अंजुम
संवेदना, एफ-23, नई कालोनी, कासिमपुर (पा.हा.)
अलीगढ, उत्तरप्रदेश

प्रस्ताव
श्री कैलाश बाजपेयी
128/862, वाई ब्लाक, किदवई नगर
कानपुर, उत्तरप्रदेश- 208011

प्रोत्साहन
श्री जीवित राम सेतपाल
205/31, बेसमेंट, सिन्धु शीव (पूर्व)
मुंबई, महाराष्ट्र-400022

प्रिय संपादक
श्री मोहन थपलियाल
सुलेखन, एल-5/185, एल, अलीगंज
लखनऊ, उत्तरप्रदेश-226024





बहुमत
श्री विनोद मिश्र
क्वा.2 ए, सड़क-13, सेक्टर-10
भिलाई, छत्तीसगढ़-490006
फोन- 0788-220068

बात सामयिकी
डॉ. सन्हैयालाल ओझा
चौथा तल, सिटी सेंटर
19, सिनेगॉग स्ट्रीट
कोलकाता, पश्चिम बंगाल-700001

बालवाणी
संपादक
उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान
राजर्षि पुरूषोत्तम टंडन हिन्दी भवन
6, महात्मा गाँधी मार्ग, लखनऊ




भारती
श्री दत्तात्रय भि.गुजर
मुंबई हिन्दी विद्यापीठ, उद्योग मंदिर
धर्मवीर संभाजीराजे मार्ग, माहिम
मुंबई, महाराष्ट्र- 16

भारत-एशियाई साहित्य
श्री अशोक खन्ना
भारत-एशियाई साहित्य अकादमी
ई-1070, सरस्वती विहार, नई दिल्ली-110034

भारत वाणी
डॉ. चंदूलाल दुबे
द.भा.हिंदी प्रचार सभा, कर्नाटक शाखा
पो.बा.न.-42, डासी कम्पाउण्ड
धारवाड़, कर्नाटक- 1

भारतीय लेखक
श्री भीमसेन त्यागी
डी-180, सेक्टर-10, नोएड़ा उत्तरप्रदेश

भाषा-भारती संवाद
श्री नृपेन्द्रनाथ गुप्त
अ.भा.भाषा साहित्य सम्मेलन बिहार
श्री उदित आयतन, शेखपुरा, पटना
बिहार-800014

भाषा स्पंदन

डॉ. मंगल प्रसाद
कर्नाटक हिन्दी अकादमी
विनायक, 127 एमआईजी / केएचबी, 5वाँ ब्लाक
कोरमंगला, बेंगलूर (कर्नाटक)-95

भाषा और साहित्य
डॉ. सुरेश आचार्य एवं बद्री प्रसाद
हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विभाग
डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय
सागर, मध्यप्रदेश

भोजपुरी लोक
डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य
ए 14, माल एवेन्यू कॉलोनी
लखनऊ, उत्तरप्रदेश- 226001



मकरंद
श्री राम सहाय वर्मा
मकरंद प्रकाशन, बी-14, सेक्टर-15
नोएडा, उत्तरप्रदेश-201301

मड़ई
डॉ. कालीचरण यादव
बनियापारा, जूना बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 495001
E-mail: bas_madai@yahoo.co.in

माध्यम

श्री सत्यप्रकाश मिश्र
सम्मेलन मार्ग, प्रयाग, इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश

मार्गदीप
श्री मंजूर फ़ाखिर
160, रोशनी घर, खुसरो बाग, रामपुर
उत्तरप्रदेश-244901

मानस चन्दन
डॉ. गणेश दत्त सारस्वत
सारस्वत सदन, सिविल लाइन्स
सीतापुर, उत्तरप्रदेश- 261001

मिलाप राजभाषा पत्रिका
श्री विनय वीर
5-4-674, कट्टलमंडी, हैदराबाद
आन्ध्रप्रदेश—1

मित्र
मिथिलेश्वर
महराजा हाता, कतिरा, आरा (बिहार) 802301
दूरभाष- 06182-232220, मोबाईल- 094316-83936

मित्र संगम

श्री प्रेम बोहरा
35-बी, पुरानी बस्ती कालोनी, दिल्ली- 110009

मसि कागद
डॉ.श्याम सखा ‘श्याम’
पलाश, 12, विकास नगर, रोहतक
हरियाणा-124001
फोन-01262-24293
E-mail-msikagad@yahoo.co.in

मैकलसुता
श्री कृष्णस्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’
गीतांजलि भवन, म.आ.व.-08
आवासीय मंडल, उपनिवेशिका, नर्मदापुरम
होशंगाबाद, मध्यप्रदेश

मैसूर हिन्दी प्रचारक पत्रिका
डॉ. वि. राम संजीवैया
58, वेस्ट आफ, कार्ड रोड, राजाजी नगर, बैगलोर
कर्नाटक- 10

मुक्त कथन
श्री जनार्दन प्रसाद सिंह
रूपछाया प्रेस, बेगूसराय, बिहार



यू. एस. एम, पत्रिका
श्री उमाशंकर मिश्र
ए-32, अशोक नगर, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश

युद्धरत आम आदमी
सुश्री रमणिका गुप्ता
रमणिका फाउन्डेशन, मेन रोड, ए-21, डिफेंस कालोनी
नई दिल्ली

युमशकैश
फु.गोकुलानन्द शर्मा
ब्रह्मपुर, पैलेस रोड, इम्फाल
मणिपुर- 795001



रंगायन
श्री पीयूष दईया
भारतीय लोककला मंडल
उदयपुर, राजस्थान

रंग प्रसंग
श्री प्रयाग शुक्ल
नेशनल स्कूल आफ ड्रामा, बहावलपुर हाउस
भगवानदास रोड़, नई दिल्ली

रंग संवाद

श्री राजकमल नायक
अभिव्यक्ति राज्य संसाधन केन्द्र
ई-8/195, त्रिलंगा, भोपाल, मध्यप्रदेश-462039
मेल- abhivyaktisrc@hotmail.com

रवीन्द्र ज्योति
डॉ. केवल कृष्ण पाठक
527/ 17, आनंद निवास, गीता कॉलोनी
जीन्द, हरियाणा-126102

रसमुग्धा
डॉ. ओमप्रकाश पचरंगिया
रसमुग्धा प्रकाशन, पचरंगिया भवन
चिड़ावा, राजस्थान-333026

रश्मिरथी

श्री अरूण कुमार आर्य
वार्ड न. 7, मुसाफिर खाना, सुल्तानपुर
उत्तरप्रदेश-227813

राग भोपाली
संपादक
अभिरूचि अपार्टमेंट, 27 बी, लालघाटी
भोपाल, मध्यप्रदेश-462001

राजभाषा किरण
श्री अनन्त कमार साहू
पो.बा.न.-11298, चर्चगेट
मुंबई, महाराष्ट्र- 400020

राष्ट्रभाषा
श्री अनन्त राम त्रिपाठी
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
वर्धा, महाराष्ट्र- 3

रैन बसेरा
डॉ. जय सिंह ‘व्यथित’
गुजरात हिन्दी विद्यापीठ, कमलेश पार्क
महेश्वरी नगर, ओढव, अहमदाबाद
गुजरात



लफ़्ज
श्री तुफैल चतुर्वेदी
फ़्लैट नं.-25 मानवस्थली एपार्टमेंट, वसुन्धरा एन्क्लेव
दिल्ली-110096

ललित लालिमा
श्री ललित कुमार ‘ललित’
आर. के. पुरम, राठी अस्पताल के पीछे
आगरा रोड़, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश

लोकयज्ञ
पो. सोनवणे राजेन्द्र ‘अक्षत’
सिन्धु पुष्प, प्राध्यापक कॉलोनी, आदर्श नगर
पांगरी रोड, बीड, महाराष्ट्र

लोकवार्ता
डॉ. अर्जुनदास केसरी
सचिव, लोकवार्ता शोध संस्थान
सोनभद्र, उत्तरप्रदेश

लोकशिक्षक
डॉ. सत्येन्द्र चतुर्वेदी
के.-14, अशोक मार्ग, सी-स्कीम
जयपुर, राजस्थान-1

लोकाक्षर (छत्तीसगढी)
श्री नंद किशोर तिवारी
विप्र सहकारी मुद्रणालय मर्यादित
कुदुदण्ड, बिलासपुर (छत्तीसगढ)

लोर्का
सुश्री प्रभाती नौटियाल
फुंदासिओन, इस्पानिका
3050, बी-4, अरुणा आसफ अली मार्ग, वसंत कुंज
नई दिल्ली-110070
ई-मेलः lorcapatrica@hotmail.com

वर्तिका
श्री संजय कुमार सिन्हा
मधुवनी, पूर्णिया, बिहार-854301

वर्तमान संदर्भ

संगीता आनंद
देवकी धाम, माधव ब्लाक, फ्लैट न. ए.-3
वेस्ट बोरिंग कैनाल रोड, पटना- (बिहार)-1

वंदेभारती
श्री ओंकारनाथ त्रिपाठी
अकबरपुर, अंबेडकरनगर, उत्तरप्रदेश

वसुधा
श्री कमला प्रसाद
7-1/बी, गुरूकृपा, अपार्टमेंट्स
प्रोफेसर्स कॉलोनी, भोपाल
मध्यप्रदेश-462002

वीणा
डॉ. श्यामसुन्दर व्यास
11, रविन्द्रनाथ टैगोर मार्ग, इन्दौर
मध्यप्रदेश- 452001

विचार कविता
श्री बलदेव बंशी
ए-3/283, पश्चिम विहार
नई दिल्ली-110063

विषयवस्तु
श्री धर्मेन्द्र गुप्त
271, राजधानी एनक्लेव, शकुर बस्ती, दिल्ली-110341

विदूषक
श्री अरविंद विद्रोही
ई डब्ल्यू. एस 13 / 8, छोटा गोविन्दपुर
जमशेदपुर, झारखंड- 831015

विपक्ष
श्री भारत यायावर
हिन्दी विभाग, चास कॉलेज बोकारो, बिहार

विपाशा
संपादक
भाषा एवं संस्कृति विभाग
त्रिशूल, शिमला, हिमाचल प्रदेश-171003

वेदप्रकाश
श्री अजयकुमार
गोविन्दराम हासानंद
4408, नई सड़क, दिल्ली-110006

वर्तमान जनगाथा
श्री किशन चन्द शर्मा
भजनपुरा, दिल्ली

वागर्थ
श्री रवीन्द्र कालिया
भारतीय भाषा परिषद, 36-ए, शेक्सपियर सरणी
कोलकाता, पश्चिम बंगाल- 700017



संकल्प रथ
श्री राम अधीर
108/1, शिवाजी नगर, भोपाल (मध्यप्रदेश) 462016

संग्रथन
डॉ. एम. एस. विनयचंद्रन
हिन्दीविद्यापीठ, केरल
माञञालिक्कुलम् रोड़, तिरूवनन्तपुरम
केरल-995001

संभवा
श्री ध्रुवनारायण गुप्त
केंद्रीय क्षेत्र उत्तर गाँधी मैदान
पटना, बिहार

संवेद
श्री कसन कालजयी
बड़ी केशोपुर, जमालपुर-811214

सतयुग की वापसी
श्री मुरारीलाल अग्रवाल
34, मधुवन, अलवर, राजस्थान-1

सातवाँ सोपान
श्री राजीव सारस्वत
हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पो.लि.मुंबई रिफाइनरी
बी.डी.पाटिल मार्ग, चेंबूर, मुंबई
महाराष्ट्र-400074
फोन- 25650271
E-mail: rsaraswat@hpcl.co.in

सबके दावेदार
श्री पंकज गौतम
लालसा लाल तरंग
मु.-सीताराम, आजमगढ़, उत्तरप्रदेश

सद्भावना दर्पण
श्री गिरीश पंकज
जी-31, नया पंचशील नगर, रायपुर, छत्तीसगढ
मोबाईल- 94252-12720
ई-मेल- girishpnkj@yahoo.co.in

सदी से सरोकार
श्रीमती किरम माथुर
34/3, ओल्ड सुभाष नगर, भोपाल
मध्यप्रदेश, 462003

सदीनामा
श्री जितेन्द्र जितांशु
गवर्नमेंट क्वाटर्स, बजबज
कोलकाता, पश्चिम बंगाल- 137

सनद
मंजू मल्लिक मनु
सनद प्रकाशन, 840 ए न्यू कालोनी
शिवमंदिर के पास, खगौल, पटना, बिहार

संबोधन
कमर मेवाड़ी
चाँदपोल, कांकरोली (राजस्थान) 313324
फोन- 02952-223221, मोबाइल- 98292-88570

संवेद वाराणासी
श्री अनिल मिश्र
बी-105, न्यू इनकमटैक्स कॉलोनी, फिल्म सिटी रोड
गोरेगाँव, ईस्ट, मुंबई

सम्यक
श्री मदन मोहन उपेन्द्र
ए-10, शान्ति नगर (संजय नगर)
मथुरा (उत्तरप्रदेश) 281001
दूरभाष- 0565-2460514

समकालीन भारतीय साहित्य
श्री अरूण प्रकाश
रवीन्द्र भवन, 35, फिरोजशाह मार्ग
दिल्ली- 110001

समकालीन साहित्य समाचार
श्री सत्यव्रत
किताबघर प्रकाशन
पो. बा. -7240, नई दिल्ली- 110002
E-mail: kitabghar_prk@yahoo.com

समकालीन सृजन
श्री शंभुनाथ
20, बालमुकंद मक्कर रोड़
कोलकाता, पश्चिम बंगाल-700007

समय माजरा
श्री हेतु भारद्वाज
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन
आगरा रोड, जयपुर (राजस्थान) 302003

समय-सुरभि
श्री नरेन्द्र कुमार सिंह
शिवपुरी(नया जेल से पश्चिम)
पो.व जिला- बेगूसराय
बिहार- 851101

समयान्तर
श्री पंकज विष्ट
79-ए, दिलशाद गार्डन, दिल्ली
समांतर
श्री इसाक अश्क
तराना, जिला उज्जैन, मध्यप्रदेश

समरलोक
पद्मश्री मेहरून्निसा परवेज
ई-7/ 837, शाहपुरा, भोपाल

समवेत घोष
प्रो. रमेश तिवारी ‘विराम’
उमेश स्मृति भवन, मकरंद नगर, कन्नौज
उत्तरप्रदेश- 209726

संप्रेषण
डॉ. चन्द्रभानु भारद्वाज
119, श्री जी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, राजस्थान

सरल चेतना
श्री हेमन्त रिछारिया
कोठी बाजार, होशंगाबाद, मध्यप्रदेश

सरस-सुबोध
श्री एन. आई. सिद्दीकी
12/913, दाउद सराय, निकट-मस्ज़िद, तीरग्रान
सहारनपुर, उत्तरप्रदेश-247001

सरोकार
सदानंद सुमन
रानीगंज, पो.आ. मेरीगंज
जिला- अररिया
बिहार- 8854334

सर्वनाम
श्री विष्णुचंद्र शर्मा
ई-11, सादतपुर, दिल्ली-110094

सहकार
भानुदत्त त्रिपाठी ‘मधुरेश’
हिन्दी सहकार संस्थान
362, सिविल लाइन्स(कल्याणी)
उन्नाव, उत्तरप्रदेश-209801

साम्य
श्री विजय गुप्त
शीतला वार्ड, ब्रह्मपथ, अंबिकापुर
छत्तीसगढ़

सापेक्ष
श्री महावीर अग्रवाल
ए-14, आदर्श नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़- 491003

सारस्वत जगत
श्री पी. आर. ओझा
ललकार डाकघर के पीछे, सारस्वत मार्ग, गंगाशहर रोड़
बीकानेर, राजस्थान-334001

साक्षात्कार
डॉ.देवेन्द्र दीपक
साहित्य अकादमी, म.प्र. संस्कृति परिषद
संस्कृति भवन, वाणगंगा, भोपाल, मध्यप्रदेश-462003

साहित्य अमृत
श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी
4/19, अरूणा आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002


साहित्य कल्याण परिषद

श्री रामचन्द्र शुक्ल
कल्याण परिषद, अवंतिका
हाथी पार्क, रायबरेली, उत्तरप्रदेश

साहित्य क्रांति
अनिरूद्ध सिंह सेंगर
आकाश, भार्गव कालोनी, गुना, मध्यप्रदेश

साहित्य भारती
श्रीमती विद्याविन्दु सिंह
उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
उत्तरप्रदेश

साहित्य वैभव
डॉ. सुधीर शर्मा
शिवा इलेक्ट्रीकल के पास, अमीनपारा
रायपुर, छत्तीसगढ़

साहित्य सागर

श्री कमलकान्त सक्सेना
103/ए, नीलकमल काम्प्लेक्स, 205
जोन-1, महाराणा प्रतापनगर, भोपाल, मध्यप्रदेश-462011

साहित्य सागर (बाल-पत्रिका)
डॉ. मुनिलाल ‘सरस’
सरस साहित्य कुटीर
नगर बाजार, बस्ती, उत्तरप्रदेश

सामान्य जन संदेश
लोहिया अध्ययन केन्द्र
441, सुभाष रोड़, नागपुर, महाराष्ट्र-18

सीधी बात (सा.)
श्री अशोक मंगल
चौक, अजमेरा
पिंपरी, पुणे, महाराष्ट्र-18

सौगात
श्री श्याम अकुर
हठीला भैरुजी की टेक, मंडोलावार्ड
बारां, राजस्थान

सौपान
श्री स्वरूप सैलानी
सौपान साहित्यिक मंच
154, लायर्स चैम्बर्स, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट
हिसार, हरियाणा

सुमन सागर
श्री कमलरंजन
हिमशैल, विनीता भवन, काजीचक, बाढ़
पटना, बिहार-803213

सुरसरि
श्री रामदेव सिंह
गोपालपुर, विद्यापतिनगर, समस्तीपुर
बिहार

सूरज चाँद
श्री राजेन्द्र राजन
सुचियातन, चाणक्यनगर
बेगूसराय, बिहार

सृजन-गाथा
श्री जयप्रकाश मानस
सृजन-सम्मान, एफ-3, आवासीय कॉलोनी
छ.ग. माध्यमिक शिक्षा मंडल, रायपुर
छत्तीसगढ़- 492001
E-mail- srijangatha@gmail.com

सृजन पथ
सुश्री रंजना श्रीवास्तव ‘रंजू’
श्री पल्ली, गली न.2, तीन बत्ती मोड़ के पास
पो.आ. सिलीगुडी बाजार
जिला- जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल-734405

स्वातिपथ
श्री कृष्ण मनु
बी ।।। /35, मुनीडीह, धनबाद
बिहार-828129



शिवम्
श्री विनोद तिवारी
462, ए, सेक्टर, शाहपुरा, भोपाल
मध्यप्रदेश-456039

शेष
हसन जमाल
पन्ना निवास(साईकिल मार्केट) के पास
लोहारपुरा, जोधपुर(राजस्थान) 342002

शुभ तारिका
श्री उर्मिकृष्ण
ए-47, शास्त्री कालोनी, अम्बाला छावनी, अम्बाला, चंडीगढ़

शब्द
श्री आर. सी. यादव
सी-1104 इन्दिरा नगर, लखनउ, उत्तरप्रदेश

शब्दलोक
श्री शशांक प्रभाकर
14, सरस्वती नगर, बल्केश्वर, आगरा
उत्तरप्रदेश- 282004

शब्दशिखर
डॉ.आनन्दप्रकाश त्रिपाठी
‘कथायन’ यादव कॉलोनी, पटेल का बगीचा
सागर, मध्यप्रदेश-
फोन-05278-26199

शब्द शिल्पियों के आसपास
श्री राजुरकर राज
एच-3, वल्लभदास मेहता, नेहरूनगर
भोपाल, मध्यप्रदेश-462003





हरसिंगार
श्री भगवती प्रसाद देवपुरा
साहित्य मंडल, नाथद्वारा
राजस्थान-313301

हम साथ-साथ हैं
श्री किशोर श्रीवास्तव
प्लाट न.-175, आनंदपुरधाम, कराला
दिल्ली- 110081


हंस
श्री राजेन्द्र यादव
अक्षर प्रकाशन प्रायव्हेट लिमिटेड़
2/36, दरियागंज, दिल्ली-110002

हाइकु दर्पण
डॉ.जगदीश व्योम
केन्द्रीय विद्यालय कैम्प
होशंगाबाद, मध्यप्रदेश

हाइकु भारती
श्री भगवत शरण अग्रवाल
396, सरस्वती नगर, अहमदाबाद, गुजरात

हिन्दी प्रचारक पत्रिका
श्री विजय प्रकाश बेरी
सी- 21 / 30, पिशाचमोचन, वाराणसी
उत्तर प्रदेश

(पत्रिकाओं का नाम सतत् जोडा जा रहा है । कृपया आप पत्रिकाओं का नाम हमें सुझा सकते हैं । हम यहाँ विदेश से प्रकाशित करना चाहते हैं साथ ही हिन्दी ब्लागर्स के पते व हिन्दी बेबसाईट के यूआरएल । कृपया सहयोग करना चाहें । जयप्रकाश मानस)