साहित्य-संसार

Saturday, March 25, 2006

मिसिर जी

कितनी बार
न जाने कितना बार
वक़्त की गाज़ झेला हूँ
दुर्निवार मौत के साथ
कबड्डी खेला हूँ

कितनी बार
न जाने कितना बार
सबूत चुटाने पड़े हैं
वायवी तारकोली कंलकों से
चेहरे की चमक
साबुत बचा लेने के लिए

कितनी बार
न जाने कितनी बार
आकांक्षाओं को दफ़नाया है
बुदबुदाहट तक की
पाबंदियाँ झेलते हुए
सपनों को करनी पड़ी है
ख़ुदक़ुशी

कितनी बार
न जाने कितनी बार
मिसिर जी
अब क्या टूटूँगा
झूलूँगा अबक्या डोरे से
ऐसे ही नहीं पुहुँचा हूँ
इस मुकाम पर


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