साहित्य-संसार

Saturday, March 25, 2006

जब कभी हो ज़िक्र मेरा

याद करना
पीठ पर छुरा घोंपने वाले मेरे मित्रों के लिए
मेरी प्रार्थनाएँ “हे प्रभु इन्हें माफ़ करना”

याद करना
हारी हुई बाज़ी को जीतने की क़शमक़श
पूर्वजों के रास्ते कितने उजले कितने घिनौने
कि ग्रह नक्षत्र,तारों में छप गये वे लोग उजले लोग

याद करना
सम्बे समय की अनावृष्टि के बाद की बूँदाबाँदी
संतप्त खेतों में नदी पहाड़ों में हवाओं में
कि नम हो गई गर्म हवा
कि विनम्र हो उठा महादेव पहाड़ रस से सराबोर
कि हँस उठी नदी डोंडकी खिल-खिलाकर
कि छपने लगी व्याकरण से मुक्त कविता की
आदिम किताबसुबह दुपहर शाम छंदों में
वह मैं याद करना

यादकरना
ज़िक्र जिसकाहो रहाहोगा
वह बन चुका होगा
वह बन चुका है वनस्पति कि जिसकी हरीतिमा में
तुम खड़े हो बन चुका है आकाशकी गहराइयाँ
कि जिसमें तुम धंसे हो

याद करना
न आये याद तो भी कोशिश करना तो करना
कि अगली पीढ़ी सिर झुकाकर शर्म से
कुछ भी न कह सके हमारे बारे में
जब कभी हो ज़िक्र हो मेरा

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1 Comments:

  • भाव-प्रबल रचना है, यथार्थ और आदर्श का सुंदर मेल है। सोचने को मज़बूर करती है।
    प्रेमलता पांडे

    By Blogger प्रेमलता पांडे, at 4:56 AM  

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