साहित्य-संसार

Sunday, March 26, 2006

पता नहीं

कभी मीठा-खारा पानी
लोहा पत्थर कभी
कुछ-न-कुछ होता है प्राप्य
जब ज़मीन खोदते हैं आप या हम
पितरों की अनझुकी रीढ़ के अवशेष
माखुर की डिबिया
चोंगी सुपचाने वाली चकमक
मर्ति में देवता
देवता के हाथों में त्रिशूल खडगबाण
नाचा के मुखौटे
कभी भी मिल सकते हैं
यह सब पता है हम सभीको
पता नहीं है
हम कहाँ उड़ रहे


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