साहित्य-संसार

Sunday, March 26, 2006

ऊहापोह

उफनती नदी की शक्ल में
मसकता है लावा
और समतल पहाड़ियाँ उग आती हैं
गूँजता है बीहड़ों से
आदिम राग
गफा और भी ख़ूँखार हो उठता है
पौधे उतार फेंकना चाहते हैं हरीतिमा
राहु को घोषित कर देता है चैम्पियन
बुझता हुआ चन्द्रमा
लकड़हारा बन जाता है कालिदास
खाई कहाँ नज़र आती है खाई
आकाश जा बैठता है रसातल की जगह
उलटी दिशा में ज़ोरदार घूमने गलती है पृथ्वी
तेज़-तेज़ दौड़ने के बावजूद
रहते हैं वहीं के वहीं
बैठे-बैठे औंधे मुँह हो जाते हैं
जैसे छिटककर कोई बीज पेड़ से
विवेक गम हो जाता है
जैसे अनाड़ी के हाथ से
गिर गया हो कोई सिक्का अथाह नीलिमा में

ऐसे वक़्त
सब कुछ होने के बावजूद कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होने के बाद भी हो जाता है बहुत कुछ
ऊहापोह से बढ़कर ख़तरा
और क्या हो सकता है

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