साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

जीत

पतंग के कटने से पहले ही
लूटी जा चुकी धागा-चकरी
हार गया हूँ आज
जो कभी न हारा था
लेकिन
मन तो मन है
धागा-चकरी सा घूम रहा
एक महीन तागा अन्तहीन
सरकता ही जाता है
नीलिमा में
एक टुकड़ा चटक लाल
कभी नीचे कभी ऊपर
कभी गोल-गोल चक्कर में
ऐंचता-खैंचता
उड़ता ही रहता है
जीत और किसे कहते हैं
कि मन उड़ता ही रहे
बिन धागा-चकरी के

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