साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

वनवासी गमकता रहे

संस्कारवान जब-जब
बैठा रहता है निस्पृह
निश्चिंत अपने कमरे में
तब-तब वह
कोलाहल उधेडबुन में धँस जाता है
बंद कमरे के भीत को लेकर

सभ्यजन जब-जब
दृष्टि को सिरहाना बनाकर
सोता रहता है
अपने कमरे में
तब-तब उसकी नज़रे रेंगती
फिसलती रहती हैं
अँधेरे की आड़ में
दूसरों के कमरे में
विचारशील जब-जब
गाँज-गाँज कर धार-धार अस्त्रों को भरता
अपने कमरे में
तब-तब पीछे छूटा समय
बना लेता है बंदी
उसके अपने कमरे में ही

वनवासी नहीं होता संस्कारवान
नहीं जानता सभ्यता को पढ़ने की
चतुर भाषा
विचारशीलता के बिम्ब भी
होते नहीं उसके पास
फिर भी चाहता रहूँगा ताउम्र
वनवासी गमकता रहे
कोठी में धान की मानिंद
गाँव में तीज-तिहार की मानिंद
पोखर में पनिहारिनों की हँसी की मानिंद
वन में चार-चिरौंजी की मानिंद

मेरी कविता में
अपरिहार्यतः
अनिवार्यतः


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