साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

रास्ते

न कहीं जाते और न ही
कहीं से आते, स्थिर अपनी जगह
किसे पहुँचाते नहीं
मन-मुताबिक
गाँव-घर-खेत-खार-मंदिर-मस्जिद
मेले-ठेले-नदी-पहाड़ आक्षितिज समुद्र तक

इनके बारे में जब कहा जाता
कि ये नहीं थे तब भी थे ये
सृजन के पूर्व और प्रलय के बाद भी
फैलें और सिमट जाएँ क्षण में
धूप-छाँह, सर्दी-गर्मी, आँधी-पानी
हर हाल में ये ख़ुश, हर हाल में ख़ामोश

जितना सुनते
जो भी सुन पाते
जैसे हों औरत
जैसे कोई देवमूर्ति
बिना अहम् पाले
गन्तव्य तक पहँचाने में मुस्तैद

कितने वीतराग होते है
धूमधड़ाके के साथ गुज़रती बारात
कि जैसे इन्द्रधनुषी अभिसार
हाड़तोड़ मजदूरी के बाद घर वापसी
कि जैसे युद्ध से लौटता हो कोई
या आव़ाजों के ऐनवक़्त
सधे क़दमों के इंतजार में हैं
इस समय ये रास्ते

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