साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

मनोकामना

तालाब का ठहरा हुआ पानी
बहता रहे भीतर-ही-भीतर
और सघन हों पहाड़ियाँ

उगे कुछ अधिक टहनियाँ
टहनियों पर कुछ और कोपलें फूटें
उससे ज्यादा फूल
फूल से ज्यादा फल

उमड़ पड़ें रंग-बिरंगी तितलियाँ
हवा कुछ क़दम और चलकर आ सके
खिड़कियाँ खुली हुई हों इससे अधिक
सपनों के और करीब हो आँखें

मुस्कानों में निश्च्छलता का अंश बढ़ता रहे
कोने अंतरे के रूदन से दहल उठे ब्रह्मांड
तारों को मुस्काता चेहरा दिखला रहे
चाँद कुछ ज्यादा ही बन पड़े सुन्दर
इसी तरह दीप्तिवान सूरज भी

इसलिए कि हम सभी को कहा जा सके
अधिक सुन्दर अधिक प्रखर
इस समय सबसे ज्यादा जरूरी है
मनोकामनाओं की आयु और बढे़
बढ़ता ही रहे


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