साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

नींद से छूटते ही चला जाऊँगा

नींद से छूटते ही चला जाऊँगा
मुस्कराहट से बेख़बर
ढेर सारी विपत्तियों
तमाम उहापोहों
समूचे बेगानेपन के
भँवरजाल से फँसे
भोर से पहले चिड़ियों की प्रभाती से कोसों दूर खड़े
उन सभी अपरिचितों के बिलकुल क़रीब
जो मुझसे भी उतने ही अपरिचित हैं
जानना चाहूँगा उतना
जिसके बाद जानने को शेष न रहे रंचमात्र मुझसे
जैसी नदी
जैसे पहाड़
जैसी छांह
जैसी आग
जैसे शब्द
जैसी भाषा
जैसी कविता
जैसे जीवन राग
नहीं बनाया जा सकता दुनिया को बेहतर
सिर्फ इन्द्रधनुषी सपने रचते-रचते
सीधे चला जाऊँगा नींद से बचते-बचाते

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