साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

विदाई के बाद

तेजी से उतर कर बैठ जाता है
नदी के तल में लोहा
धँस जाता है मित्र वैसे ही अंतस में
बगर-बगर उठता है और भी मित्र
जैसे धान की कटाई के बाद
घर को कोना-कोना
हर विधा
हर शब्द
हर कथ्य
हर शैली
हर व्याकरण में
विहँसने लगता है एकबारगी
जैसे दिन में उजियाला
जैसे निशा में चाँदनी
जब भी
जहाँ भी
विलग होना पड़ता है मित्र को
नहीं पहुँच पाता
दरअसल विदाई के बाद
शुरू होता है मिलन
विदाई होती कहाँ है दरअसल

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