साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

इधर बहुत दिन हुए

इधर बहुत दिन हुए
पगडंडियों में चला नहीं
नीम महुआ चिरौंजी जैसे कुछ शब्द
भेजे नहीं लिफाफे में
महक कहाँ पाया अपनी ही क्यारी में
सुलगा नही सका आग
ठूँठ और तूफ़ान में उखड़े दरख़्तों की पीड़ा
पढ़ी भी नहीं
सच की धूप से भागता रहा
नए ज़माने के पढ़े-लिखे छोकरों की तरह

रीढ़ की हड्डी को तानकर
रख पाया नहीं कभी
आत्महंता प्रश्नों को टालता रहा हर बार
एक भी बार
न चीखा न चिल्लाया
जैसे रहा हो कहीं रेहन में
तारीख़ों को बदलने की कहाँ की हरकत
सपने तो जैसे भूल गया देखना
किसी खूँटे से बँधे ढोर की तरह
एक ही परिधि के भीतर
लील रहा है घास

इधर बहुत दिन हुए
उन्हें एक आला सरकारी अफ़सर कहा जाता है


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