साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

ऐसे में तुम

रोटी देखते ही
दीखने लगे
खलिहान
खलिहान में पसीने से तर-बतर पिताजी
गेहूँ से कंकड़ बीनती माँजी का बुझा हुआ चेहरा
तर रही तवा-सी पत्नी
चिट्ठी पहुँचते
मन टटोलने लगें
बालसखाओं की ठिठोलियाँ
उत्सव के दिन धमा-चौकड़ी
नदी-तट पर चहल-पहल
सूरज ढ़लते ही
इर्द-गिर्द उगने लगे
चप्पे-चप्पे तक अकाल की गहराती छाया
बुरे समय का आतंक
ज़हरीली ख़ामोशी श्मशान मानिंद
ऐसे में तुम ऐसे में तुम सीधे चले आना
उजली झील को लाँघकर
तरई के पार

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