साहित्य-संसार

Monday, March 27, 2006

फिर से

फिर से
विश्वासघात कर रहा है बादल
फिर से

जलकुकड़ा सूरज जल रहा है
हवा फैल रही है फिर से ज़हर
ज़मीन दोस्ती कर रही है दीमकों के साथ
फिर से
परदेशी फिर से रवाना कर रहे हैं
ख़तरनाक टिड्डों की फौज
स्वदेशी फिर से छुड़ा रहे हैं
डाकू-ढोर-डंगरों को
अगर कुछ नहीं हो रहा है फिर से
तो सिर्फ़
विचारों की लहलहाती फ़सल को
बचा लेने की किसानी कोशिश


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