साहित्य-संसार

Friday, March 31, 2006

सत्यबीज

जला सकती नहीं अग्नि
डुबा सकता नहीं जल
उड़ा सकता नहीं मरूत्
छुपा सकता नहीं आकाश
समवेत चेष्टा से भी
भई किसे ?
सत्यबीज को

सत्यबीज
बगरता ही जाता है
पूरे गमक के साथ
उस के
नहीं होते कान
नहीं होती नाक
नहीं होती आँख
नहीं होती जीभ
उन सबके बावजूद
एक ही समय पर
सून सकता है हर आवाज़
सूँघ सकता है हर गंध
देख सकता है हर प्रघटना
चख सकता है हर रस
सत्यबीज होता है संपूर्ण

वह सिर्फ़ नहीं होता
राम-ईसा-पैंगबर या जरास्थू
सत्यबीज अंकुरित होता है
हमारी भी बस्तियों में
पाते हैं जिससे
गर्माहट- जैसे सूरज
होते हैं प्रकाशित – जैसे चंद्रमा
बुझाते हैं प्यास - जैसे नदी का तट

चलो आज ही
पूरे मन से
अकाल के बाद पहली बारिश में
किसान की भाँति
अपने-अपने दिल में रोप दें
सत्यबीज


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