साहित्य-संसार

Friday, March 31, 2006

एक अदद घर

जब
माँ –
नींव की तरह बिछ जाती है
पिता –
तने रहते हैं हरदम छत बनकर
भाई सभी –
उठा लेते हैं स्तम्भों के मानिंद
बहन –
हवा और अंजोर बटोर लेती है जैसे झरोखा
बहुएँ –
मौसमी आघात से बचाने तब्दील हो जाती है दीवाल में
तब
नयी पीढ़ी के बच्चे -

खिलखिला उठते हैं आँगन-सा
आँगन में खिले किसी बारहमासी फूल-सा
तभी गमक-गमक उठता है
एक अदद घर
समूचे पड़ोस में
सारी गलियों में
सारे गाँव में
पूरी पृथ्वी में


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1 Comments:

  • स्म्स्कारित एवं सौहार्दपूर्ण जीवन का आह्वान करती हुई रचना अनोखी छाप छोड़ रही है।
    शुभ शुभ

    By Blogger Vindu babu, at 3:47 PM  

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